पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/८५

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साहित्यिक हिंदी की उपभाषाएँ घल्कि उसके व्याकरण पर भी फारसी, अरबी व्याकरण का रंग चढ़ाना श्रारंभ कर दिया। इस अवस्था में इसके दो रूप हो गए; एक तो हिंदी ही कहलाता रहा, और दूसरा उर्दू नाम से प्रसिद्ध हुना। दोनों के प्रचलित शब्दों को ग्रहण करके, पर व्याकरण का संघटन हिंदी ही के अनुसार रखकर, अँगरेजों ने इसका एक तीसरा रूप 'हिंदुस्तानी' बनाया। श्रतएव इस समय इस खड़ी बोली के तीन रूप वर्तमान हैं-(१) शुद्ध हिंदी-जो हिंदुओं की साहित्यिक भापा है और जिसका प्रचार हिंदुओं में है। (२)उर्दू-जिसका प्रचार विशेषकर मुसलमानों में है और जो उनके साहित्य की और शिष्ट मुसलमानों तथा कुछ हिंदुओं की घर के बाहर की बोलचाल की भाषा है। और (३) हिंदुस्तानी-जिसमें साधारणतः हिंदी उर्दू दोनों के शब्द प्रयुक्त होते हैं और जिसका सब लोग योलचाल में व्यवहार करते हैं। इसमें अभी साहित्य की रचना बहुत कम हुई है। इस तीसरे रूप के मूल में राजनीतिक कारण है। प्रसंगवश हम हिंदी शब्द के इतिहास पर थोड़ा सा प्रकाश डालना चाहते हैं। पहले कुछ लोग इस शब्द से बड़ी घृणा करते थे और इसका प्रतिनिधि 'आर्य भाषा' शब्द प्रयुक्त करते थे। पर अव इसी का प्रयोग चढ़ रहा है। है भी यह सिंधु से निकला हुआ बड़ा पुराना शब्द । ईसा मसीह से बहुत पहले फारस में लिखी गई 'दसातीर' नामक फारसी धर्म-पुस्तक में जो 'अकलूँ बिरहमने व्यास नाम अज़ हिंद श्रामद यस दाना के प्राकिल चुनानस्त' और 'चू व्यास हिंदी बलख प्रामद' लिखा है, वही 'हिंदी' शब्द की प्राचीनता के प्रमाण में यथेष्ट है। एक मुसल• मान लेखक ने 'नूरनामा' नाम की पुस्तक में उस भापा को भी 'हिंदी' चतलाया है जिसको आजकल उर्दू कहते हैं। देखिए- जुबाने अरब में य' या सब कलाम ! किया नज्म हिंदी में मैंने तमाम || अगर्चे था अफ़स: वो अरखी जुबाँ। व लेकिन समझ उसकी थी बस गिरों॥ समझ उसकी हर इक को दुश्वार थी। कि हिंदी जुबाँ वाँ तो दरकार थी। इसी के सबब मैंने कर फ़िको गौर । लिखा नूरनामे को हिंदी के तार || अरबी, फारसी मिश्रित खड़ी वोली के लिये 'उर्दू शब्द का प्रयोग बहुत ही आधुनिक है। पहले बहुत करते थे तो केवल हिंदी न कहकर 'उर्दू-हिंदी' कह देते थे।