पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१०८

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तत्सम, तद्भव, अर्द्ध तत्सम, तत्समाभास अथवा विदेशी शब्द नहीं हैं, उन्हें देशज मान लिया जावे। हिन्दी भाषा में कुछ ऐसे शब्द भी प्रयुक्त होते हैं, जो देखने में तत्सम ज्ञात होते हैं, परन्तु वास्तव में वे तत्सम शब्द नहीं होते। जिनको संस्कृत का ज्ञान साधारण होता है, आदि में उनके द्वारा ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है. जब उनके अनुकरण से दूसरे लोग भी उनका व्यवहार करने लग जाते हैं. तो काल पाकर वे गृहीत हो जाते और भाषा में चल जाते हैं । इस प्रकार के शब्द हैं, हरीतिमा, लालिमा, सत्या- नाश, प्रण और मनोकामना आदि। कुछ संस्कृत के विद्वान इस प्रकार के शब्दों का व्यवहार करने के विरोधी हैं. उनके द्वारा अब भी इस प्रणाली का यथा समय विरोध होता रहता है, परन्तु मेरा विचार है कि ऐसे चल गये और व्यापक बन गये, शब्दों का विरोध सफलता नहीं लाभ कर सकता। कारण इसका यह है कि समस्त प्राकृतों और अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्ति ही इस प्रकार हुई है। भाषा में जब स्थान मिल गया है तब इस प्रकार के शब्दों का निकाल बाहर करना साधारण बात नहीं, ऐसी अवस्था में उनको उस भाषा का स्वतंत्र प्रयोग मान लेना ही अधिक युक्ति-संगत ज्ञात होता है। अनेक व्याकरण रचयिताओं ने इस पथ का अवलम्बन किया है, ऐसे शब्दों को तत्समाभास कह सकते हैं।। हिन्दी शब्द-भाण्डार पर विदेशी भाषाओं के शब्द का भी बहुत कुछ प्रभाव पड़ा है। 'नानक' शब्द का प्रयोग नामकरण के लिये प्रायः काम में लाया जाता है, नानकचंद, नानक वख्श् नाम अब भी रखे जाते हैं परन्तु वास्तव में 'नानक' यूनानी शब्द है। 'कचहरी' शब्द घर घर प्रचलित है, और साहित्यिक भाषा में भी चलता रहता है परन्तु है यह पुर्तगाली भाषा का शब्द। शक और हूणों के शब्द भी प्राकृत और अपभ्रंश से होकर हिन्दी में आये हैं, परन्तु सबसे अधिक उसमें फारसी, अरबी और अङ्गरेज़ी के शब्द पाये जाते हैं। ६०० ईस्वी के लगभग मुहम्मदबिन क़ासिम ने सिन्धु को जीता, भारत के एक बड़े प्रदेश में मुसल्मानों की यह पहली विजय थी, उसके बाद १०० वर्ष तक पंजाब में मुसल्मानों का राज्य रहा तदुपरान्त वे धीरे धीरे भारत भर में फैल गये और लगभग