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इस प्रकार के शब्दों को छोड़कर इन भाषाओं के कुछ संज्ञाओं को लेकर उन्हें क्रिया का रूप हिन्दी नियमानुसार दिया गया, और आज कल वे क्रियायें हिन्दी में निस्संकोच भाव से प्रचलित हैं। शरमाना, फरमाना कबूलना, बदलना, बख्शना, आदि ऐसी ही क्रियायें हैं। शर्म, फ़रमान, क़बूल, बदल, बख्श, आदि संज्ञाओं के अन्त में हिन्दी का धातु चिन्ह लगा कर इन्हें क्रिया का रूप दिया गया, और आज कल उनसे सब काल की क्रियायें हिन्दी व्याकरण के नियमानुसार बनती रहती हैं। इन भाषाओं के आधार से बहुत से ऐसे शब्द भी बन गये हैं, कि जिनका आधा हिस्सा हिन्दी शब्द है, और दूसरा आधा अरबी, फ़ारसी इत्यादि का कोई शब्द। जैसे पानदान, पीकदान, हाथीवान, समझदार, ठीकेदार आदि। इस प्रकार की कुछ क्रियायें भी बनाली गई हैं। जैसे खुशहोना, रवानाहोना, दिल लगाना, ज़ख्म पहुंचाना, इलाज करना, हवा हो जाना आदि।
मुसलमानों का अदालत और दफ़तरों के काम पहले प्रायः हिन्दी में होते थे, परन्तु अकबर के समय में राजा टोडरमल ने दफ्तर को हिन्दी से फ़ारसी में कर दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दू फ़ारसी पढ़ने के लिये बिवश हुए, और कचहरी एवं दफतरों का काम फ़ारसी में होने लगा। इससे भी प्रचुर फ़ारसी अरबी आदि के शब्दों का प्रचार जन साधारण और हिन्दी में हुआ, और क़ानून एवं अदालत सम्बन्धी सैकड़ों पारिभाषिक शब्द व्यवहार में आने लगे। क़ाजी, नाज़िम, क़ानूनगो, समन, नाबालिग़, बालिग़, दस्तावेज़, आदि ऐसे ही शब्द हैं।
अरबी, फ़ारसी में कुछ ऐसी ध्वनियां हैं, जो उनकी वर्णमाला में मौजूद हैं, परन्तु हिन्दी वर्णमाला में उनका अभाव है। जब फ़ारसी अरबी, और तुर्की के शब्दों का प्रचार हुआ तो उनके शब्दगत अक्षरों की विशेष ध्वनियों की ओर भी लोगों की दृष्टि आकर्षित हुई, क्योंकि बिना उन ध्वनियोंकी रक्षा किये शब्दोंका शुद्धोच्चारण असंभव था। परिणाम यह हुआ कि कुछ विशेष चिन्ह के द्वारा इस न्यूनता की पूर्त्ति की गई। यह विशेष चिन्ह वह बिन्दु है जो अरबी के अपेक्षित अक्षरों के नीचे लगाया जाता