पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१३१

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"यह (खुमान रासो) मेवाड़ का अत्यन्त प्राचीन पद्य-बद्ध इतिहास है, नवीं शताब्दी में लिखा गया है। इसमें खुमान रावत और उनके परिवार का वर्णन है। महाराणा प्रताप के समय में (सन् १५७५) इसमें बहुत से परिवर्तन किये गये। वर्त्तमान रूप में इसमें अकबर के साथ प्रतापसिंह के युद्धों का वर्णन भी मिलता है। तेरहवीं शताब्दी में चित्तौड़ पर किये गये अलाउद्दीन ख़िलजी के आक्रमण का भी इसमें विस्तृत वर्णन है।"

परन्तु इस कथन का यह अर्थ नहीं है कि खुमान रासो की आदिम रचना की भाषा आदि भी बदल दी गई है। ग्रियर्सन साहब के लेख से इतना ही प्रकट होता है कि उसमें अलाउद्दीन ख़िलजी और अकबर के समय तक की कथायें भी सम्मिलित कर दी गई हैं। ऐसी अवस्था में न तो उसके आदिम रचना होने का महत्व नष्ट होता है और न उसकी भाषा को सन्दिग्ध कहा जा सकता है। जिस समय उसकी रचना हुई थी उस काल का वातावरण ही ऐसा था कि इस प्रकार के ग्रन्थों की सृष्टि होती। क्योंकि यह असम्भव था कि उत्तरोत्तर मुसल्मान पवित्र भारत वसुन्धरा के विभागों को अधिकृत करते जावें और जिन सहृदय हिन्दुओं में देशानुराग था वे अपने सजातियों को देश और जाति-रक्षा के लिये विविध रचनाओं द्वारा उत्तेजित और उत्साहित भी न करें। यह सत्य है कि भारतवर्ष की सार्वजनिक शक्ति किसी काल में मुसल्मानों का विरोध करने के लिये कटिबद्ध नहीं हुई और न समस्त हिन्दू जाति किसी काल में उनसे लोहा लेने के लिये केन्द्रीभूत हुई। किन्तु यह भी सत्य है कि मुसल्मानों की विजय प्राप्ति में कम बाधायें नहीं उपस्थित की गईं और यह इस प्रकार की कृतियों और रचनाओं का ही अंशतः परिणाम था। जिस काल में हिन्दू जाति की संगठन शक्ति सब प्रकार छिन्न भिन्न थी उस समय बीरगाथा सम्बन्धी रचनाओं ने जो कुछ लाभ पहुंचाया उसको अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इन्हीं बातों पर दृष्टि रखकर मैं पहले कह आया हूं कि वे तात्कालिक वातावरण और संघर्षण से ही उत्पन्न हुई थीं। वास्तव बात यह है कि सामाजिक रुचियों और भावों ही