पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१३२

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का परिणाम किसी काल का साहित्य होता है। उनका बीररस प्रधान होना भी हमारे कथन की पुष्टि करता है।

अब मैं भाषा विकास सम्बन्धी विषय पर प्रकाश डालना चाहता हूँ, अतएव इसी कार्य में प्रवृत्त होता हूँ। भाषा-विकास के प्रकरण में मैं यह लिख आया हूँ कि अपभ्रंश भाषा से क्रमशः विकसित हो कर हिन्दी भाषा वर्त्तमान रूप में परिणत हुई। इस लिये पहले मैं कुछ ऐसे पद्य आप लोगों के सामने रखता हूँ जो अपभ्रंश भाषा के हैं। इन पद्यों की रचना प्रणाली और उनके शब्द-विन्यास का ज्ञान हो जाने पर आप लोग उस रीति से अभिज्ञ हो जावेंगे जिसको ग्रहण कर हिन्दी साहित्यकारों ने हिन्दी भाषा को आधुनिक रूप दिया। अपभ्रंश के निम्नलिखित पद्यों को देखिये:—

१—बिट्टीए मइ भणिय तुहुं मा कुरु वङ्को दिट्ठी।
पुत्ति सकर्णी भल्लि जिवॅं मारइ हियइ पविट्ठि॥

बिट्टीए=बिटिया। मइ=मैंने। भणिय=कहा। तुहूं=तू। मा=मत। कुरु=कर। बङ्को=बाँकी। पुत्ति=पुत्री। सकर्णी=कानवाली, नुकीली। भल्लि=भाला। जिवॅं=जैसे। मारइ=मारती है। हियइ=हिये में। पविट्ठि=प्रविष्ट होकर, पैठ कर।

बेटी! मैंने कहा, तू बाँकी दृष्टि न कर, हे पुत्री! नुकीला भाला हृदय में पैठ कर मार देता है।

२—जे महुं दियणादियहड़ा दइये पबसन्तेण।
ताण गणन्तिय अंगुलिउ जज्जरियाउ नहेण॥

जे=जो। महुं=हमको। दियण=दिया। दियहड़ा=दिवस। दइयें=दयित, प्यारा। पवसन्तेण=प्रवास में जाता हुआ। ताण=तिन्हें, तिनको। गणन्तिय=गिनती हुई। अंगुलिउ=अँगुली। जजरियाउ=जर्जरितहो गई। नहेण=नख से॥

प्रवास करते हुये प्यारे ने जो दिन मुझको दिये उनको उंगलियों पर गिनने से वे नखों से जर्जर हो गईं॥