पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१३८

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भी उपस्थित करना चाहता हूं जिनकी रचना इन पद्यों से सर्वथा भिन्न है। वे पद्य ये हैं।—

दूहा


सरस काव्य रचना रचौँ, खल जन सुनि न हसन्त।
जैसे सिंधुर देखि मग, श्वान स्वभाव भुसन्त।
तौ यनि सुजन निमित्त गुन, रटये तन मन फूल।
जूं का भय जिय जानि कै, क्यों डारिये दुकूल।
पूरन सकल विलास रस, सरस पुत्र फल दान।
अन्त होय सह गामिनी, नेह नारि को मान।
जस हीनो नागो गनहु, ढंक्यो जग जस बान।
लम्पट हारै लोह छन, तिय जीतै बिनु बान।
समदर्शी ते निकट है, भुगति मुकति भर पूर।
विषम दरस वा नरन ते, सदा सर्वदा दूर।

मेरा विचार है, ए पद्य सोलहवीं शताब्दी के हैं और बाद को ग्रन्थ की मुख्य रचना में सम्मिलित किये गये हैं। परन्तु कोई भाषा मर्मज्ञ भिन्न प्रकार के दोनों पद्य समूहों को देख कर यह न स्वीकार करेगा कि वे एक काल की ही रचनायें हैं। मेरा तो यह विचार है कि ये दोनों भिन्न प्रकार की रचनाएं ही इस बात का प्रमाण हैं, कि उनके निर्माण-कालमें शताब्दियों का अन्तर है। डाक्टर ग्रियर्सन साहब कहते हैं कि इस ग्रन्थ में १००००० पद्य हैं[१]। क्या पद्यों की यह बहुलता यह नहीं प्रमाणित करती कि इस ग्रन्थ में धीरे धीरे बहुत अधिक प्रक्षिप्त अंश सम्मिलित किये गए हैं। हिन्दी भाषा में अब तक इतने बड़े ग्रन्थ का निर्माण नहीं हुआ है। संस्कृत में भी महाभारत को छोड़कर कोई ऐसा विशाल ग्रन्थ नहीं है। महाभारत में भी जब क्रमशः बहुत से सामयिक श्लोक यथा समय सम्मिलित होते गये तभी


  1. देखिए माडर्न बर्नाक्यूलर लिटरेचर आव् हिन्दुस्तान पृष्ठ ३