पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१३९

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उसका इतना विस्तार हुआ। यही बात पृथ्वीराज रासो के विषय में भी कही जा सकती है। जैसे बाद के प्रक्षिप्त अंशोंकी उपस्थिति में भी महाभारत प्राचीन श्लोकों से रहित नहीं हो गया है उसी प्रकार रासो में भी प्राचीन रचनाओं का अभाव नहीं है।

इस विषय में अनेक विद्वानों को सम्मतियाँ मेरे विचारानुकूल हैं। हां कुछ विद्वान् उसको सर्वथा जाली कहते हैं। यह मत-भिन्नता है। डा॰ ग्रियर्सन साहब की इस विषय में क्या सम्मति है और उसकी भाषा के विषय में[१] उनका क्या विचार है उनको मैं नोचे उद्धृत करता हूं।

"उसकी (चन्दवरदाई की) रचनाओं का मेवाड़ के अमरसिंहने सत्रहवीं शताब्दी के आरंभ में संग्रह किया। यह भी असम्भव नहीं है कि उसी समय किसी किसी अंश को नवीन रूप दे दिया गया हो। जिससे इम सिद्धान्त का भी प्रचार हो गया है कि कुल का कुल ग्रन्थ जाली है।"

"इस कवि (चन्दवरदायी) के ग्रन्थों के अध्ययन ने मुझे उसके

कवित्व सौन्दर्य पर मुग्ध बना दिया है परन्तु मुझे सन्देह है कि राजपूताना की बोलियों से अपरिचित कोई व्यक्ति इस आनन्द पूर्वक पढ़ सकेगा। तथापि यह भाषा-विज्ञान के विद्यार्थी के लिये अत्यन्त मूल्यवान् है, क्योंकि यूरोपीय अनुसन्धान कर्ताओं को आधुनिकतम प्राकृत और प्राचीनतम गौड़ीय कवियों के मध्य में रिक्त स्थान की पूर्ति करने वाली कड़ी एक मात्र यही है। हमारे पास चन्द का मूल ग्रन्थ भले ही न हो, फिर भी उसकी रचनाओं में हमें शुद्ध अपभ्रंश. शौरसनी प्राकृत रूपा से युक्त, गौड़ साहित्य के प्राचीनतम नमूने मिलते हैं।"[२]


  1. "His poetical works were collected by Amar Singh (cf. no. 191), of Mewar in the eariy part of the seventeen Century. They were not improbably ready and modernised in parts at the same time, which has given rise to a theory that the whole is a modern forgery."
  2. "My own studies of this poet's work have inspired me with a great admiration for its por tic heauty, but I doubt if anyone not perfecily master of the various Rajputana dialects could even read it with pleasure. It is however, of the greatest value to the student of philosophy, for it is at present the only stepping stone available to European explorers in the charm between the latest Prakrit and the earliest Gaudian authors Though we may not prosses the actual text of Chand we have certainly in his writing some of the oldest known speciemans of Gaudian literature, abounding in pure Apbharansha Shaurseni prakit froms"