सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(१४५)

उपस्थित की जावे। इस विषय में 'गंगा' नामक मासिक पत्रिका के प्रवाह १, तरंग ९ में राहुल सांस्कृत्यायन नामक एक वौद्ध विद्वान् ने जो लेख लिखा है उसी का एक अंश मैं यहां प्रस्तुत विषय पर प्रकाश डालने के लिये उधृत करता हूं:—

"भारत से वौद्धधर्म का लोप तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी में हुआ। उस समय की स्थिति जानने के लिये कुछ प्राचीन इतिहास जानना आवश्यक है।"

'आठवीं शताब्दी में एक प्रकार से भारत के सभी वौद्ध सम्प्रदाय वज्रयान-गर्भित महायान के अनुयायी हो गये थे। बुद्ध की सीधी-साधी शिक्षाओं से उनका विश्वास उठ चुका था और वे मनगढ़ंत हज़ारों लोकोत्तर कथाओं पर मरने लगे थे। बाहर से भिक्षु के कपड़े पहनने पर भी वे भैरवी चक्र के मज़े उड़ा रहे थे। बड़े बड़े विद्वान् और प्रतिभाशाली कवि आधे पागल हो, चौग़सी सिद्धों में दाखिल हो, सन्ध्या-भाषा में निर्गुण गा रहे थे। सातवीं शताब्दी में उड़ीसा के राजा इन्द्रभूति और उसके गुरु सिद्ध अनंग-वत्र स्त्रियों को ही मुक्तिदात्री प्रज्ञा, पुरुषोंकोही मुक्तिका उपाय, और शराब को ही अमृत सिद्ध करने में अपनी पंडिताई और सिद्धाई खर्च कर रहे थे। आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक का बौद्ध धर्म बस्तुतः वज्रयान या भैरवी चक्र का धर्म था। महायान ने ही धारणीयों और पूजाओं से निर्वाण को श सुगम कर दिया था। वज्रयान ने तो उसे एक दम सहज कर दिया। इसी लिये आगे चल कर वज्रयान सहजयान भी कहा जाने लगा।"

"वज्रयान के विद्वान्, प्रतिभाशाली कवि, चौरासी सिद्ध, विलक्षण प्रकार से रहा करते थे। कोई पनही बनाया करता था, इसलिये उसे पनहिया कहते थे कोई कम्बल ओढ़े रहता था, इसलिये उसे कमरिया कहते थे, कोई डमरू रखने से डमरुआ कहलाता था, कोई ओखली रखने से ओखरिया आदि। ये लोग शराब में मस्त, खोपड़ी का प्याला लिये श्मशान या विकट जंगलों में रहा करते थे। जन साधारण को जितना ही