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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१६१

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छाँटै तजौगुरु छाँटै तजौ लोभ माया।
आत्मा परचै राखौ गुरु देव सुन्दर काया।५।
एतैं कछु कधीला गुरु सर्वें भैला भोले।
सर्बे कमाई खोई गुरु बाघ नी चै बोलै।६।
हबकि न बोलिया उबकि न चलिबा धीरे धरिया पाँवं।
गरब न करिबा सहजै रहिवा भणत गोरखरावं।७।
हँसिया खेलिया गाइबा गीत। दृढ़ करि राखे अपना चीत।
खाये भी मरिये अणखाये भी मरिये।
गोरख कहे पूता संजमही तरिये।८।
मद्धि निरंतर कोजै वास। निहचल मनुआ थिर व्है साँस।
आसण पवन उपद्रह करै। निसिदिन आरँभपचिपचि मरै।९।

इनकी भाषा अमीर खुसरो के समान न तो प्राञ्जल है, न हिन्दी की बोलचाल के रंग में ढली, फिर भी बहुत सुधरी हुई और हिन्दीपन लिये हुये है। उसके देखने से यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार पन्द्रहवीं ईसवी शताब्दी के आरंभ में हिन्दी भाषा अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो रही थी। गोरखनाथ जी की रचना में विभिन्न प्रान्तों के शब्द भी व्यवहृत हुए हैं, जैसे गुजराती, 'नी' मरहठी 'चा' और राजस्थानी 'बोलिवा' धरिबा, चलिवा इत्यादि। उस समय के महात्माओं की रचना में यह देखा जाता है कि अधिकतर देशाटन करने के कारण उनकी रचनाओं में कतिपय प्रान्तिक शब्द भी आ जाते हैं। यह बात अधिकतर उस काल के और वाद के सन्तों की बानियों में पाई जाती है। मेरा विचार है, गोरखनाथजी ही इसके आदिम प्रवर्त्तक हैं, जिसका अनुकरण उनके उपरान्त बहुत कुछ हुआ। इन दो एक बातों को छोड़कर इनकी रचनाओं में हिन्दी भाषा की सब विशेषताएं पाई जाती हैं। उनमें संस्कृत तत्सम शब्दों का अधिकतर प्रयोग है जो प्राकृत प्रणाली के अनुकूल नहीं। धार्मिक शिक्षा प्रसार के लिये अग्रसर होने पर अपनी रचनाओं में उनका संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग करना स्वाभा-