(१५२)
मोर मन हरि हरि लै गेल रे अपनो मन गेल।
गोकुल तजि मधुपुर बसि रे कति अपजस लेल।
विद्यापति कवि गाओल रे धनि धरु पिय आस।
आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास।
इन पद्यों को पढ़ कर यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इनमें मैथिली शब्दों का प्रयोग कम नहीं है। विद्यापति मैथिल कोकिल कहलाते हैं। डाक्टर ग्रियर्सन साहब ने भी इनको मैथिल कवि कहा है।[१] बँगलाके अधिकांश विद्वान् एक स्वर से उनको मैथिल भाषा का कवि ही बतलाते हैं। और इसी आधार पर उनको बँगला का कवि मानते हैं क्योंकि बँगला का आधार मैथिली का पूर्व रूप है। वे मिथिला निवासी थे भी। इस लिये उनका मैथिल कवि होना युक्ति-संगत है। परन्तु प्रथम तो मैथिली भाषा अधिकतर पूर्वी हिन्दी भाषा का अन्यतम रूप है, दूसरे विद्यापति की पदावली में हिन्दी शब्दों का प्रयोग अधिकता, सरसता एवं निपुणता के साथ हुआ है। इसलिये उसको हिन्दी भाषा की रचना स्वीकार करना ही पड़ता है। जो पद्य ऊपर लिखे गये हैं वे हमारे कथन के प्रमाण हैं। इनमें मैथिली भाषा का रंग है, किन्तु उससे कहीं अधिक हिन्दीभाषा की छटा दिखाई पड़ती है। इस विषय में दो एक हिन्दी विद्वानों की सम्मति भी देखिये। अपने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में (५९, ६० पृष्ट) पं॰ रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं:—
विद्यापति को बंगभाषा वाले अपनी ओर खींचते हैं। सर जार्ज ग्रियर्सन ने भी बिहारी और मैथिली को मागधी से निकली होनेके कारण हिन्दी से अलग माना है। पर केवल भाषा शास्त्रकी दृष्टिसे कुछ प्रत्ययों के आधार पर ही साहित्य-सामग्री का विभाग नहीं किया जा सकता। कोई भाषा कितनी दूर क समझी जाती है, इसका विचार भी तो आवश्यक होता है। किसी भाषाका समझा जाना अधिकतर उसकी शब्दावली (Vocabulary) पर अवलम्वित होता है। यदि ऐसा न होता तो उर्दू और हिन्दी का एक ही साहित्य माना जाता।
- ↑ देखिये वर्नाक्युलर लिटरेचर आफ् हिन्दुस्तान पृष्ट ९ पंक्ति ३४