पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१६८

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लिये यहां उपस्थित की है, कि जिससे आप लोगों को यह ज्ञात होसके कि उस समय हिन्दी भाषा का क्या रूप था। उनकी कविता को देखने से यह ज्ञात होता है कि उनके समय में हिन्दी भाषा प्रायः प्राकृत शब्दों से मुक्त हो गई थी, और उसमें बड़ी सरस रचनायें होने लगी थीं। मुझको विश्वास है कि उनकी रचना के अधिकांश शब्दों और प्रयोगों को हिन्दी मानने में किसी को आपत्ति न होगी। वे ब्रजभाषा के चिर परिचित शब्द हैं जो अपने वास्तविक रूप में पदावली में गृहीत हुए हैं। श्रीमती राधिका की विरह वेदना का वर्णन होने के कारण उनपर और अधिक ब्रजभाषा की छाप लग गई है। जो शब्द चिन्हित हैं, उन्हें हम ब्रजभाषा का नहीं कह सकते। किन्तु उनमें से भी 'हेरथि' इत्यादि दो चार शब्दों को छोड़ कर शेष को निस्संकोच भाव से अवधी कह सकते हैं और यह अविदित नहीं कि अवधी भाषा पूर्वी हिन्दी का ही रूप है॥

मेरा विचार है कि पन्द्रहवें शतक में प्रान्तिक भाषाओं में हिन्दी वाक्यों और शब्दों के प्रवेश का सूत्रपात हो गया था, जो आगे चलकर अधिक विकसित रूप में दृष्टिगत हुआ।

मैं इस प्रणाली का आदि प्रवर्त्तक विद्यापति को हो मानता हूं। यदि गुरु गोरख नाथ हिन्दी भाषा में धार्मिक शिक्षा के आदि प्रवर्त्तक हैं और उसको ज्ञान और योग की पुनीत धाराओं से पवित्र बनाते हैं तो मैथिल कोकिल उसको ऐसे स्वरों से पूरित करते हैं जिसमें सरस शृंगार रस की मनोहारिणी ध्वनि श्रवणगत होती है। सरसपदावली का आश्रय लेकर उन्होंने भगवती राधिका के पवित्र प्रमोद्गारों से अपनी लेखनी को रसमय ही नहीं बनाया, साहित्य क्षेत्र में अपूर्व भावों की भी अवतारणा की। यहां पर यह प्रश्न उप- स्थित होता है कि विद्यापति स्वयं इस प्रणालीके उद्भावक हैं या उनके सामने इससे पहले का और कोई आदर्श था। मैं यह स्वीकार करूँगा कि उनके सामने प्राचीन आदर्श अवश्य था। परन्तु हिन्दी भाषा में राधा भावके आदि प्रवर्त्तक विद्यापति ही हैं। पदावलीमें राधाकृष्णके संयोग और वियोग शृंगार‌ जैसा भावमय और हृदयमाही वर्णन विद्यापति ने किया है, हिन्दी भाषा में उनसे पहले इस प्रकार का भावुकतामय वर्णन पहले किसी ने नहीं किया।