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श्री मद्भागवत में गोपियों का प्रेम भगवान कृष्ण चन्द्र के प्रति जिस उच्चभाव से वर्णित है वह अलौकिक है। प्रेम त्यागमय होता है, स्वार्थमय नहीं। रूप-जन्य मोह क्षणिक और अस्थायी होता है। उसमें सुख-लिप्सा होती है आत्मोत्सर्ग का भाव नहीं पाया जाता। किन्तु वास्तविक प्रेम अपना
आदर्श आप होता है। उसमें जितनी स्थायिता होती है, उतना ही त्याग। वह आन्तरिक निस्स्वार्थ भावों पर अवलम्बित रहता है, स्वार्थमय प्रवृत्तियों पर नहीं। उसमें प्रेमी पर अपने को उत्सर्ग कर देने की शक्ति होती है, और वह इसी में अपनी चरितार्थता समझता है। भागवत में गोपियों को ऐसे ही प्रेम की प्रेमिका वर्णित किया गया है। विद्यापति सँस्कृत के विद्वान् थे। साथ ही सहृदय और भावुक थे। इस लिये भागवत के आदर्श को अपनी रचनाओं में स्थान देना उनके लिये असंभव नहीं था। मेरा विचार है कि जयदेव जो की मधुर रचनाओं से भी उनकी कविता बहुत कुछ प्रभावित है, क्योंकि वे उनसे कई शतक पूर्व संस्कृत भाषा में इस प्रकार की सरस पदावली का निर्माण कर चुके थे। श्री मद्भागवत में श्री मती राधिका का नाम नहीं मिलता। परन्तु ब्रह्म वैवर्त पुराण में उनका नाम मिलता है और उसमें वे उसी रूप में अंकित की गई हैं जिस रूप में गीत गोविन्दकार ने उनको ग्रहण किया है। यह सत्य है कि गीत गोविन्द में सरस शृंगार ही का स्रोत बहता है, परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि जयदेव जी ने उस ग्रन्थ की रचना भक्ति भाव से की है और वे भगवती राधिका और भगवान कृष्ण में उतना ही पूज्य भाव रखते थे जितना कोई वल्लभाचार्य के सम्प्रदाय का भक्त रख सकता है। उनके प्रन्थ में ही इसके प्रमाण विद्यमान हैं। विद्यापति की रचनाओं के देखनेसे पाया जाता है कि[१] जयदेवजी का यह भक्ति-भाव उनमें भी भरित था। डाकर जी॰ ए॰ ग्रियर्सन लिखते "मथिली भाषा में अमूल्य पदावली-रचना के लिये ही उनका
- ↑ But his chief glory consists in his matchless sonnets (Pad a) in the Maithili dialect dealing allegorically with the relations of the soul to God under the form of love which Radha dore to Krishna." Modern Vernacular Literature of Hindustan By Dr. Grierson.