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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१७३

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साँई माइ सास पुनि साईँ साईँ याकी नारी।
कहै कबीर परमपद पाया संतो लेहु बिचारी।]

कबीर साहब ने स्वयं कहा है, 'बोली मेरी पुरुब की', जिससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनकी रचना पूर्वी हिन्दी में हुई है और इन कारणों से यह बात पुष्ट होती है कि वे पूर्व के रहने वाले थे और उनकी जन्म भूमि काशी थी। काशी और उसके आस पास के ज़िलों में भोजपुरी और अवधी-भाषा ही अधिकतर बोली जाती है। इस लिये उनकी भाषा का पूर्वी भाषा होना निश्चित है और ऐसी अवस्था में उनकी रचनाओं को पूर्वी भाषा में ही होना चाहिये। यह सत्य है कि उन्होंने बहुत अधिक देशाटन किया था और इससे उनकी भाषा पर दूसरे प्रान्तों की कुछ बोलियों का भी थोड़ा बहुत प्रभाव हो सकता है। किन्तु इससे उनकी मुख्य भाषा में इतना अन्तर नहीं पड़ सकता कि वह बिलकुल अन्य प्रान्त की भाषा बन जावे। सभाद्वारा जो पुस्तक प्रकाशित हुई है उसकी भाषा ऐसी ही है जो पूर्व की भाषा नहीं कही जा सकती, उसमें पंजाबी और राजस्थानी भाषा का पुट अधिकतर पाया जाता है। ऊपर के पद्य इसके प्रमाण हैं। कुछ लोगों का विचार है कि कबीर साहब के इस कथन का कि 'बोली मेरी पुरुब की' यह अर्थ है कि मेरी भाषा पूर्व काल की है, अर्थात् सृष्टि के आदि की। किन्तु यह कथन कहां तक संगत है, इसको बिद्वज्जन स्वयं समझ सकते हैं। सृष्टि के आदि की बोली से यदि यह प्रयोजन है कि उनकी शिक्षायें आदिम हैं तो भी वह स्वीकार-योग्य नहीं, क्योंकि उनकी जितनी शिक्षायें हैं उन सब में परम्परागत बिचार की ही झलक है। यदि सृष्टि की आदि की बोली का यह भाव है कि उस काल की भाषा में कबीर साहब की रचनायें हैं तो यह भी युक्ति संगत नहीं, क्योंकि जिस भाषा में उनकी रचनायें हैं वह कोई सहस्र वर्षों के विकास और परिवर्तनों का परिणाम है। इस लिये यह कथन मान्य नहीं। वास्तव बात यह है कि कबीर साहब की रचनायें पूर्व की बोली में ही हैं और यही उनके उक्त कथन का भाव है। अधिकांश रचनायें उनकी ऐसी ही हैं भी। सभा द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ के पहले उनकी जितनी रचनायें प्रकाशित हुई हैं या हस्त-