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४—सभुकोइ चलन कहत हैं ऊहां,
ना जानौं बैकुण्ठु है कहाँ।
आप आप का मरम न जाना,
बातनहीं बैकुण्ठ बखाना।
जब लगु मन बैकुण्ठ की आस,
तब लग नाहीं चरन निवास।
खाईँ कोटु न परल पगारा,
ना जानउँ बैकुण्ठ दुवारा।
कह कबीर अब कहिये काहि,
साधु संगति बैकुण्ठै आहि।
सभा की प्रकाशित ग्रन्थावली में भी इस प्रकार की रचनायें मिलती हैं। मैं यहां यह भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में कबीर साहब की जितनी रचनायें संग्रहीत हैं वे सब उक्त ग्रन्थावली में ले ली गई हैं। उनमें वैसा परिवर्तन नहीं पाया जाता जैसा सभा के सुरक्षित ग्रन्थ की रचनाओं में मिलता है। मैं यह भी कहूंगा कि उक्त सुरक्षित ग्रन्थकी पदावली उतनी परिवर्तित नहीं है जितने दोहे। अधिकांश पदावली में कबीर साहब की रचना का वही रूप मिलता है जैसा कि सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में पाया जाता है। मैं इसी पदावली में से तीन पद्य नीचे लिखता हूं :
१—हम न मरैं मरिहै संसारा,
हमकूं मिल्या जियावन हारा।
अब न मरौं मरनै मन माना,
तेई मुए जिन राम न जाना।
साकत मरै संत जन जीवै,
भरि भरि राम रसायन पीवै।