( १६७ ) चर्चा में प्रकट हो चुका है । सूरि जैनियों के आचार्य कहलाते थे और उस समय दक्षिण में उनकी महत्ता भी कम नहीं थी। इनलोगों के साथ गुरु नानक देव ने जो पीर का नाम लिया है. इसके द्वारा उस समय इनकी कितनी महत्ता थी यह बात भली भांति प्रगट होती है । इस पीर नाम का सामना करने ही के लिये हिन्दु आचार्य उस समय गुरु नाम धारण करने लग गये थे। इसका सूत्रपात गुरु गोरखनाथ जी ने किया था। गुरु नानक- देव के इस वाक्य में 'गुरु ईसर गुरु गोरख बरम्हा गुरु पारबती माई' इस का संकेत है । गुरु नानक के सम्प्रदाय के आचार्यों के नाम के साथ जो गुरु शब्द का प्रयोग होता है उसका उद्देश्य भी यही है। वास्तव में उस समय के हिन्दू आचार्यों को हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये अनेक मार्ग ग्रहण करने पड़े थे। क्योंकि बिना इसके न तो हिन्दू धर्म सुरक्षित रह सकता था, न पीरों के सम्मुख उनको सफलता प्राप्त हो सकती थी क्योंकि वे राजधर्म के प्रचारक थे । कबीर साहब की प्रतिभा विलक्षण थी और बुद्धि बड़ी ही प्रखर । उन्होंने इस बात को समझ लिया था। अतएव उन दोनों से भिन्न तीसरा मार्ग ग्रहण किया था। परन्तु कार्य उन्हों ने वही किया जो उस समय मुसल्मान पीर कर रहे थे अर्थात हिन्दुओं को किसी प्रकार हिन्दू धर्म से अलग करके अपने नव प्रवर्तित धर्म में आकर्पित कर लेना उनका उद्देश्य था। इस उद्देश्य-सिद्धि के लिये उन्होंने अपने को ईश्वर का दूत बतलाया और अपने ही मुख से अपने महत्व की घोषणा बड़ी ही सवल भाषा में की । निम्नलिखित पद्य इसके प्रमाण हैं:- काशी में हम प्रगट भये हैं रामानन्द चेताये। समरथ का परवाना लाये हंस उबारन आये। कबीर शब्दावली, प्रथम भाग पृ० ७१ सोरह संख्य के आगे समरथ जिन जग मोहि पठाया कबीरं बीजक पृ० २० तेहि पीछे हम आइया सत्य शब्द के हेत । कहते मोहिं भयल युग चारी
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