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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१८०

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( १६६ ) रचनाओं के नकार ने णकार का स्वरूप ग्रहण कर लिया है, यद्यपि इस विशाल ग्रन्थ में उनकी भाषा अधिकतर सुरक्षित है । इस प्रकार के साधारण परिवर्तन का भी मुख्य भाषा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिये कबीर साहब की रचनाओं में जहाँ ऐसा परिवर्तन दृष्टिगत हो उसके विषय में यह न मानलेना चाहिये कि जो शब्द हिन्दी रूप में लिखा जा सकता था उसको उन्हों ने ही पंजाबी रूप दे दिया है, वरन सच तो यह है कि उस परिवर्तन में पंजाबी लेखक की लेखनी को लीला हो दृष्टिगत होती है। कबीर साहब कवि नहीं थे, वे भारत की जनता के सामने एक पीर के रूप में आये। उनके प्रधान शिष्य धर्मदास कहते हैं :आठवीं आरती पीर कहाये । मगहर अमी नदी बहाये। मलूक दास कहते हैं:- तजि कासी मगहर गये दोऊ दीन के पीर १ झांसी के शेरन तक़ी ऊँजी और जौनपुरके पीर लोग जो काम उस समय मुसल्मान धर्म के प्रचार के लिये कर रहे थे काशी में कबीर साहब लगभग वैसे ही काय में निरत थे । अन्तर केवल इतना ही था कि वे लोग हिन्दुओं को नाना रूप से मुसल्मान धर्म में दीक्षित कर रहे थे और कबीर साहब एक नवीन धर्म की रचना करके हिन्दू मुसल्मान को एक करने के लिये उद्योगशील थे । ठीक इसी समय यही कार्य बंगाल में हुसेन शाह कर रहे थे जो एक मुसल्मान पीर थे और जिसने अपने नवीन धर्म का नाम सत्य पीर रख लिया था। कबीर साहेब के समान वह भी हिन्दू मुसल्मानों के एकीकरण में लान थे। उस समय में भारतवर्ष में इन पीरों की बड़ी प्रतिष्ठा थी और वे बड़ी श्रद्वा की दृष्टि से देखे जाते थे। गुरु नानकदेव ने भी इन पोरों का नाम अपने इस वाक्य में सुणिये सिद्ध-पीर सुरिनाथ' आदर से लिया है। जो पद उन्होंने सिद्ध, नाथ और सूरि को दिया है वही पीर को भी । पहले आप पढ़ आये हैं कि उस समय सिद्धों का कितना महत्व और प्रभाव था । नाथों का महत्व भी गुरु गोरखनाथजी की १, हिन्दूस्तानी, अक्टूबर सन् १९३२,पृ० १५१ ।