पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१८३

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( १६६ ) औ भूले षट दर्शन भाई। पाखंड भेष रहा लपटाई । ताकर हाल होयअघकूचा । छदर्शन में जौन बिगूचा। कबीर बीजक पृ० ९७ ब्रह्मा बिस्नु महेसर कहिये इन सिर लागी काई । इनहिं भरोसे मत कोइ रहियो इनहं, मुक्ति न पाई। कबीर शब्दावली द्वितीय भाग पृ० १९ माया ते मन ऊपजै मन ते दश अवतार । ब्रह्म विस्नु धोखे गये भरम परा संसार । कबीर बीजक पृ० ६५० चार वेद ब्रह्मा निज ठाना। मुक्ति का मर्म उनह नहिं जाना। कवीर बीजक पृ० १०४ भगवान कृष्णचन्द्र और हिन्दू देवताओं के विषय में जैसे घृणित भाव उन्होंने फैलाये, उनके अनेक पद इसके प्रमाण हैं। परन्तु मैं उनको यहां उठाना नहीं चाहता. क्यों कि उन पदों में अश्लीलता की पराकाष्ठा है ।। उनकी रचनाओं में योग, निगुण ब्रह्म और उपदेश एवं शिक्षा सम्बन्धी बड़े हृदय ग्राही वर्णन हैं। मेग विचार है कि उन्हाने इस विषय में गुरु गोरखनाथ और उनके उत्तराधिकारी महात्माओं का बहुत कुछ अनुकरण किया है। गुरु गोरखनाथ का ज्ञानवाद और योगवाद ही कवीर साहव के निगुणवाद का.स्वरूप ग्रहण करता है। मैं अपने इस कथन की पुष्टि के लिये गुरु गोरखनाथ की पूर्वाद्धृत ग्चनाओं की ओर आप लोगों की दृष्टि फेरता हूं और उनके समकालीन एवं उत्तराधिकारी नाथ सम्प्रदाय के आचार्यों की कुछ रचनायें भी नीचे लिखता हूं-थोड़ो खाय तो कलपै झलपै, घड़ों खाय तोरोगी। दुहुँ पर वाकी संधि विचारै, ते को पिरला जोगी।