पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१८४

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( १७० ) यहु संसार कुवधि का खेत, जब लगि जीवै तब लगि चेत। आख्याँ देखै काण सुणै, जैसा थाहै तैसा लुणे ॥ जलंधर नाथ । २-मारिया तो मनमीर मारिया, लूटिया पवन भँडार । साधिया तो पंचतत्त साधिया, सेइया तो निरंजन निरंकार माली लौं भल माली लौं, सींचे सहज कियारी । उनमनि कला एक पहपनि, पाइले आवा गवन निवारी ॥ चौरंगी नाथ । ३-आछै आछै महिरे मंडल कोई सरा। माऱ्या मनुवाँ नएँ समझावै रे लो॥ देवता ने दाणवां एणे मनवें व्याया। मनवा ने कोई ल्यावै रे लो ॥ जोति देखि देखो पड़ेरे पतंगा । नादै लीन कुरंगा रे लो एहि रस लुब्धी मैगल मातो। स्वादि पुरुष ते भौंरा रे लो ॥ कणेरी पाव। ४-किसका बेटा किसकी बहू, आपसवारथ मिलिया सह। जेता पूला तेती आल, चरपट कहै सब आल जंजाल॥ चरपट चीर चक्रमन कंथा, चित्त चमाऊँ करना। ऐसी करनी करोरे अवधू, ज्यो बहुरि न होई मरना ॥ चरपट नाथ। ५-साधी सूधी के गुरु मेरे, बाई संव्यंद गगन मैं फेरै । मनका बाकुल चिड़ियां बोलै, साधी ऊपर क्यों मन डोलै॥