पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१९५

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( १८१ ) देखि देखि जिय अचरज होई । यह पद बूझै बिरला कोई। धरती उलटि अकासहिं जाई। चिउटी के मुख हस्ति समाई। बिन पौने जहँ परबत उहै। जीव जन्तु सब बिरछा बुहै। सूखे सरवर उठ हिलोर । बिन जल चकवा कर कलोल । बैठा पंडित पढ़े पुरान। बिन देखे का करै बखान । कह कबीर जो पद को जान । सोई सन्त सदा परमान। -कबीर वीजक पृ० ३६४ कवीर साहब ने निर्गुण का राग अलापते हुए भी अपनी रचनाओं में सगुणता की धारा बहाई है । कभी वे परमात्मा के सामने स्वामी संवक के भाव में आते हैं, कभी स्त्री पुरुष अथवा प्रेमी और प्रेमिका के रूप में, कभी ईश्वर को माता-पिता मान कर आप बालक बनते हैं और कभी उसको जगन्नियंता मान कर अपने को एक क्षुद्र जीव स्वीकार करते हैं । इन भावों की उनकी जितनी रचनाय हैं मरम्म और सुन्दर हैं और उनमें यथेष्ट हदय ग्राहिता है। जनता के सामने कभी वे उपदेशाक और शिक्षक के रूप में दिखलाई देते हैं कभी सुधारक बन कर । मिथ्याचारों का खंडन वे बड़े कटु शब्दों में करते हैं और जिस पर टूट पड़ते हैं उसकी गत बना देते हैं । उनकी यह नानारूपता इ-साधन की ही सहचरी हैं। उनकी रचनाओं में जहां सत्यता की ज्योति मिलती है. वहीं कटुता की पगकाष्ठा भी दृष्टिगत होती है । वास्तव बात यह है कि हिन्दी संसार में उनकी रचनायें विचित्रतामयी हैं। उनका शब्द-विन्यास बहुधा असंयत और उद्वेजक है,