(२००) मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और इसी रूप में वे हिन्दू संसार के सामने आते हैं। उनका कार्यक्षेत्र भी ऐसा है जहाँ धीरता. गम्भीरता, कर्मशीलता, कार्य करती दृष्टिगत होती है। उनके आदर्श उच्च हैं, साथ ही अतीव संयत। या तो वे कर्म-क्षेत्र में विचरण करते देखे जाते हैं या धर्म-क्षेत्र में । इसीलिये उनमें वह मधुर भाव की उपासना पहले नहीं लाई जा सकी जो बाद को गृहीत हुई। सव से पहले समयानुसार इस ओर मध्वाचार्य जी की दृष्टि गई। उन्होंने श्रीमद्भागवत के आधार से भगवान् श्रीकृष्णको मधुर भावनामय उपासना की नींव डालो। पहले वे स्वामी शंकराचार्य के और रामानुज सम्प्रदाय के सिद्धान्तों ही की ओर आकर्षित थे। परन्तु श्रीमद्भागवत की भक्ति-भावना हो उनके हृदय में स्थान पा सकी और उन्होंने दक्षिण प्रान्त में इस प्रकारकी उपासना का आजीवन प्रचार किया। इनकी उपासना-पद्धति में भगवान कृष्णचन्द्र प्रेम के महान आदर्श के रूप में गृहीत हुये हैं और गोपिकायें उनकी प्रेमिका के रूप में । जो सम्बन्ध गोपिकाओं का भगवान श्रीकृष्ण के साथ प्रेम के नाते स्थापित होता है भगवान के साथ भक्त का वही सम्बन्ध वर्णित करके उन्होंने अपनी उपासना-पद्धति ग्रहण की । इसीलिये उनका सिद्धान्त द्वैतवाद कहलाता है। उन्हीं के सिद्धान्तों का प्रचार विष्णु स्वामी और निम्बार्काचार्य ने किया,केवल इतना अन्तर अवश्य हुआ कि गोपियों का स्थान उन्हों ने श्रीमती राधिका को दिया। स्वामी बल्लभाचाय्य ने इसी उपासना की नींव उत्तर-भारत और गुजरात में बड़ी ही दृढ़ता के साथ डाली और थोड़े परिवर्तन के साथ इस मधुर भावना का प्रसार बड़ी ही सरसता से भारतवर्ष के अनेक भागों में किया। स्वामी वल्लभाचार्य ने वालकृष्ण की उपासना हीको प्रधानता दी है इसीलिये उनका दर्शनिक सिद्धान्त शुद्धाद्वैतवाद कहलाता है। परन्तु जैसा मैंने ऊपर अंकित किया, समय की गति देखकर उनको राधाकृष्ण की युगलमूर्ति की उपासना ही को प्रधानता देनी पड़ी। उस समय यह उपासना पद्धति बहुत अधिक प्रचलित और आद्रित भी हुई। क्योंकि इस प्रणाली में सूफियों के उस प्रेम और प्रेमिक-भाव का उत्तमो- त्तम प्रतिकार था जिसका प्रचार वे उस समय भारत के विभिन्न भागों में
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