पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२२८

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ने इस कदर ज़ोर पकड़ा कि उनके मशाबेह जो यहां की बातें थीं उन्हें बिल्कुल मिटा दिया।”[१]

इन सूफी कवियों की रचनाओं में ये दोष नहीं पाये जाते हैं। वे अपने को भारतवर्ष का समझते हैं और भारतवर्ष के उदाहरण आवश्यकता होने पर सामने लाते हैं। वे जब प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन करते हैं उस समय भी भारत की सामग्रियों से ही काम लेते हैं। कुतबन ने हुसेन के वर्णन में उसकी धर्मज्ञता की समता युधिष्ठिर से ही की है। दान देने का महत्व बलि और कर्ण को ही सामने रख कर प्रगट किया है यद्यपि उसका प्रशंसापात्र मुसल्मान था। ऊपर के पद्यों में दो स्त्रियों का सती होना और उनकी दशा का वर्णन भी उसने हिन्दू सभ्यता के अनुसार ही किया है। इससे सूचित होता है कि इन सूफ़ी कवियों के हृदय में वह विजातीय भाव उस समय घर नहीं कर सका था जो बाद के मुसल्मानों में पाया जाता है । शाह हुसेन शेरशाह का पिता था और कुतवन उसीके समय में था। इस समय भी मुसलमानों का प्रावल्य बहुत कुछ था। फिर भी कुत- बन में हिन्दू भावों के साथ जो सहानुभूति देखी जाती है वह प्रेम-मार्गी सूफ़ी की उदारता ही का सूचक है। मंझन और मलिक मुहम्मद जायसी में यह प्रवृत्ति और स्पष्ट रूप में दृष्टिगत होती है। मैं पहले कह आया हूं कि सूफ़ी धर्म के विद्वान संसार की विभूतियों में परमात्मा की सत्ता को छिपी देखते हैं और उन्हीं के आधार से वे उसकी सत्ता का अनुभव करना चाहते हैं। मंझन कवि एक स्थानपर इस भाव को इस प्रकार प्रकट करता है: --

देखत ही पहचानेउँ तोही । एही रूप जेही छँदजयो मोही।
एही रूप बुत अहै छिपाना एही रूप रब सृष्टि समाना।
एही रूप सकती औ सीऊ । एही रूप त्रिभुवन कर जीऊ।
एही रूप प्रगटे बहु भेसा। एही रूप जग रंक नरेसा ।

  1. देखिये-चतुर्दश हिन्दी साहित्य सम्मेलनके सभापतित्वपदसे लेखकका भाषणपृ०२४