पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२३१

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एक जो भाँवर भंई बियाही।
          अब दुसरे होइ गोहन जाहीं ।
जियत कंत तुम्ह हम्ह गल लांई।
          मुये कंठ नहिं छोड़हिं सांई।
लेइ सर ऊपर खाट बिछाई।
          पौढीं दुवौ कंत गल लाई।
और जो गाँठ कंत तुम जोरी।
          आदि अंत लहि जाइ न छोरी ।
छार उठाइ लीन्ह एक मूठी।
          दीन्ह उड़ाइ पिरथवी झूठी।
यह जग काह जो अथइ न जाथी।
          हम तुम नाह दोऊ जग साथी।
लागीं कंठ अंग दै होरी।।
          छार भंई जरि अंग न मोरी।
३-राती पिउ के नेह की, सरग भयउ रतनार ।
जोरे उवा सो अथवा, रहा न कोइ संसार ।
४-तुर्की, अरबो, हिन्दवी, भाखा जेती आहि ।
जामें मारग प्रेम का, सबै सराहैं ताहि ।

उनके कुछ ऐसे पद्यों को भी देखिये जिनमें उनकी सूफ़ियाना रंगत बड़ी सरसता के साथ प्रतिबिम्बित हो रही है:-

५-आजु सर दिन अथयेउ ।
        आजु रयनि ससि बूड़ ।
आजु नाथ जिउ दीजिये ।
        आजु अगिन हम जूड़ ।