पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२४७

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.( २३३ ) नाआ को पढ़ कर यह ज्ञात होता है कि वह उद्योग कर के अपनी भाषा को अवधी बनाना चाहते हैं । उनकी लेखनो स्वतः उसको ओर प्रवृत्त नहीं होती, अनुकरण में जो कमी और अवास्तवता होती है वह उनमें पाई जाती है। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उन्हों ने हिन्दी भाषा और हिन्दू भावों की ओर अपना अनुराग प्रगट किया है और यथाशक्ति अपने यत्न में सफलता लाभ करने की चेष्टा भी की है। ____ मैंने मलिक मुहम्मद जायसो के परवर्ती कवियों की चर्चा यहां इस लिये कर दी है कि जिससे यह ज्ञात हो सके कि प्रेम-मार्गी कवियों की कविता-धारा कहां तक आगे बढ़ी और किस अवस्था में। इनको चर्चा सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दो के अन्य कवियों के साथ की जा सकती थी किन्तु ऐसा करना यथास्थान न होता, इसलिये यहां पर ही जो कुछ उनके विषय में ज्ञातव्य बात थीं, लिख दी गई। यहां पर यह प्रगट कर देना भी आवश्यक है कि इसी काल में कुछ और प्रेम-कहानियां भी हिन्दुओं द्वारा लिखी गई। इनमें से लक्ष्मण सेन की बनाई ‘पदमावती' की कथा हो उल्लेख योग्य है । उसकी चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ। पौराणिक कथाओं के आधार से कुछ अन्य रचनायें भी हुई हैं, जैसे ढोलामारू. की चउपद्दी इत्यादि परन्तु उनमें अधिकतर पौरा- णिक प्रणाली ही का अनुकरण किया गया है और कहानी कहने की प्रवृत्ति ही पाई जाती है। इसलिये उनमें वह विशेषता उपलब्ध नहीं होती जो उनका उल्लेख्य विशेष रीति से किया जाय। अतएव उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गयी।


सोलहवीं शताब्दी में ही हिन्दी संसार के सामने साहित्य गगन के उन उज्ज्वलतम तीन तारों का उदय हुआ जिनकी ज्योति से वह आज तक ज्योतिर्मान है ! उनके विषय में चिर-प्रचलित सर्वसम्मति यह है:--- सूर सूर तुलसी ससी उडुगन केसव दास । अब के कवि खद्योत सम जहँ तहँ करत प्रकास।