सेन कहै सारिका सिखंडी खंजरीट सुक
मिलि कै कलेस कीनो कालिँदो कदम सों।
जामिनी बरन यह जामिनी मैं जाम जाम
बधिक की जुगुति जनावै टेरि तम सों।
देह करै करज करेजो लियो चाहति है,
कांग भई कोयल कगायो करै हमसों।
कविता अच्छी है, भाषा भी मँजी हुई है। परन्तु इस कवि का काल संदिग्ध है। मिश्र बंधुओं ने शिवसिंहसरोज के आधार से उसका काल सन् १५०३ ई० बतलाया है। परन्तु वे ही इसको संदिग्ध बतलाते हैं। जो हो, यदि यह कविता कविवर सूरदास जी के पहले की मान भी ली जावे तो इससे उनके आदिम आचार्यत्व को बट्टा नहीं लगता। मेरा विचार है कि सूरदास जी के प्रथम ब्रजभाषा का कोई ऐसा प्रसिद्ध कवि नहीं हुआ कि जिसकी कृति ब्रजभाषा कविता का साधारण आदर्श बन सके। दो चार कवित्त लिख कर और छोटा मोटा ग्रन्थ बना कर कोई किसी महाकवि का मार्ग-दर्शक नहीं बन सकता। सूरदास जी से पहले कबीरदास, नामदेव, रविदास आदिसन्तों की बानियों का प्रचार हिन्दू संसार में कुछ न कुछ अवश्य था। संभव है कि ब्रज-भाषा के ग्राम्यगीत भी उस समय कुछ अपनी सत्ता रखते हों। परन्तु वे उल्लेख-योग्य नहीं। मैं सोचता है कि सूरदास जी की रचनायें अपनी स्वतंत्र सत्ता रखती हैं और वे किसी अन्य की कृति से उतनी प्रभावित नहीं हैं जो वे उनका आधार बन सकें। खुसरो की कविताओं में भी ब्रजभाषा की रचनाएं मिली हैं। और ये रचनायें भी थोड़ी नहीं हैं। यदि उनकी रचनाओं का आधार हम ब्रजभाषा की किसी प्राचीन रचना को मान सकते हैं तो सूरदास जी की रचनाओं का आधार किसी प्राचीन रचना को क्यों न माने? मानना चाहिये और मैं मानता हूं। मेग कथन इतना ही है कि सूरदास जी के पहले ब्रजभाषा की कोई ऐसी उल्लेख-योग्य रचना नहीं थी जो उनका आदर्श बन सके।
प्रज्ञाचक्षु सूरदास जी अपना आदर्श आप थे। वे स्वयं-प्रकाश थे।