ज्ञात होता है इसी लिये वे हिन्दी संसार के सूर्य्य कहे जाते हैं। महाप्रभु वल्लभाचार्य उनको सागर कहा करते थे। इसी आधार पर उनके विशाल ग्रन्थका नाम सूर सागर है। वास्तवमें वे सागर थे और सागर के समान ही उत्तालतरंग-माला-संकुलित। उनमें गम्भीरता भी वैसी ही पायी जाती है। जैसा प्रवाह, माधुर्य, सोन्दर्य उनकी कृतिमें पाया जाता है अत्यन्त दुर्लभ है। वे भक्ति-मार्गी थे, अतएव प्रेम-मार्ग का जैसा त्यागमय आदर्श उनकी रचनाओं में दृष्टिगत होता है वह अभूतपूर्व है। प्रेममार्गी सूफ़ी सम्प्रदायवालों ने प्रेम-पंथ का अवलंबन कर जैसी रस धारा बहाई उससे कहीं अधिक भावमय मर्मस्पर्शी और मुग्धकारिणीप्रेम की धारायें सूरदासजी ने अथवा उनके उत्तराधिकारियों ने बहाई हैं। यही कारण है कि वे धारायें अंत में आकर इन्हीं धाराओं में लीन हो गई। क्योंकि भक्ति मार्गी कृष्णावत सम्प्रदाय की धाराओं के समान व्यापकता उनको नहीं प्राप्त हो सकी। परोक्षसत्ता-सम्बनधी कल्पनायें मधुर और हृदय ग्राही हैं और उनमें चमत्कार भी है, किन्तु वे बोध-सुलभ नहीं। इसके प्रतिकूल वे कल्पनायें बहुत ही बोध गम्य बनीं और अधिकतर सर्व साधारण को अपनी ओर आर्कषित कर सकीं जो ऐसी सत्ता के सम्बन्ध में की गयीं जो परोक्ष-सत्तापर अवलम्बित होने पर भी संसार में अपरोक्षभाव से अलौकिक मूर्ति धारण कर उपस्थित हुई। भगवान श्री कृष्ण क्या हैं? परोक्ष सत्ता ही की ऐसो अलौकिकतामयी मूर्ति हैं जिनमें 'सत्यम् शिवम सुन्दरम्' मूर्त होकर विराजमान है। सूफ़ी मतके प्रेम मार्गियोंकी रचनाओं में यह बात दृष्टिगत हो चुकी है कि वे किसी नायक अथवा नायिका का रूप वर्णन करते करते उसको परोक्ष-सत्ता ही की विभूति मान लेते हैं और फिर उसके विषय में ऐसी बातें कहने लगते हैं जो विश्व की आधारभूत परोक्ष सत्ता ही से सम्बन्धित होती हैं। अनेक अवस्थाओं में उनका इस प्रकार का वर्णन बोध-सुलभ नहीं होता, वरन एक प्रकार से संदिग्ध और जटिल बन जाता है। किन्तु भक्ति-मार्गी महात्माओं के वर्णन में यह न्यूनता नहीं पायी जाती। क्योंकि वे पहले ही से अपनी अपरोक्ष सत्ता को परोक्ष सत्ता का ही अंश-विशेष होने का संस्कार सर्व साधारण
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