पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

( २४० )

कबहुं पलक हरि मूंदि लेत हैं कबहुँ अधर फरकावै ।
सोवत जानि मौन है हैं रहि करि करि सैन बतावै ।
येहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरे गावै ।
जो सुख सर अमर मुनिदुरलभ सो नँदभामिनिपावै।

७-सोभित कर नव नीत लिये।
घुटुरुन चलत रेनु-मंडित तनु मुख दधि लेप किये।
चारु कपोल लोल लोचन छवि गोरोचन को तिलक दिये।
लर लटकत मनोमत्त मधुपगन माधुरि मधुर पिये।
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत हैं सखि रुचिर हिये।
धन्य सूर एको पल यह सुख कहा भये सत कल्प जिये।

मैं ऊपर लिख आया हूँ कि सूरदासजो का श्रृंगार-रस वर्णन बड़ा
विशद है और विप्रलम्भ श्रृंगार लिखने में तो उन्हों ने वह निपुणता दिख-लायी जैसी आज तक द्दष्टिगत नहीं हुई । कुछ पद्य इस प्रकार के भी देखिये:-

८-मुनि राधे यह कहा बिचारै।
वे तेरे रंग तृ उनके रँग अपनो मुख काहे न निहारै ।
जो देखे ते छाँह आपनी स्याम हृदय तव छाया ।
ऐसी दसा नंद नंदन की तुम दोउ निरमल काया।
नीलाम्बर स्यामल तन की छवि तुव छवि पीत सुवास॥
घन भीतर दामिनी प्रकासत दामिनि घन चहुँ पास।
सुनरी सखी विलच्छ कहौं तो सों चाहति हरिको रूप।
सूर सुनौ तुम दोउ सम जोरी एक एक रूप अनूप ।