सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
(२३९)

३—अपनपो आपन हीं बिसरो।
  जैसे स्वान काँच के मंदिर भ्रमि भ्रमि भूंकि मरो।
  ज्यों केहरि प्रतिमा के देखत बरबस कूप परो।
  मरकट मूठि छोड़ि नहिं दीन्हीं घरघर द्वार फिरो।
  सूरदास नलिनी के सुअना कह कौने पकरो।
४—मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
  जैसे उड़ी जहाज को पच्छी फिरि जहाजपै आवै।
  कमल नयन को छाडि महातम और देव को ध्यावै।
  पुलिन गंग को छाडि पियासो दुरमति कूप खनावै।
  जिन मधुकर अंबुज रस चाख्यो क्यों करील फलखावै।
  सूरदास प्रभु काम धेनु तजि छेरी कौन दुहावै।
      कुछ पद्य वाल भाव-वर्णन के भी देखिये :—
५—मैया मैं नाहीं दधि खायो।
  ख्याल परे ये सखा सबै मिलि मेरे मुख लपटायो।
  देखु तुही छीके पर भाजन ऊँचे घर लटकायो।
  तुही निरखु नान्हें कर अपने मैं कैसे करि पायो।
  मुख दधि पोंछ कहत नँदनंदन दोना पीठि दुरायो।
  डारि साँट मुसकाइ तबहिं गहि सुत को कंठ लगायो।
६—जसुदा हरि पालने झुलावै।
  हलरावै दुलराइ मल्हावै जोई सोई कछु गावै।
  मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुआवै।
  तू काहें न बेगही आवै तोको कान्ह बुलावै।