पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२६१

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( २४७ ) है. और उसके बाद ‘या’ होता है तो आदि व्यंजन का इकार गिर जाता है और वह अपने पर वर्ण य' में हलन्त हो कर मिल जाता है। जैसे 'सियार' का स्यार', 'पियास का प्यास' इत्यादि । किन्तु उनकी रचनाओं में दोनों प्रकार का रूप मिलता है । वे 'प्यास' भी लिखते हैं और 'पियास' भी, 'प्यार' भी लिग्वते हैं और 'पियार भी। ऊपर लिखे पद्यों में आप इस प्रकार का प्रयोग देख सकते हैं । ८-सूरदास जी को अपनी रचनाओं में मुहावरों का प्रयोग करते भी देखा जाता है। परन्तु चुने हुये मुहावरे ही उनकी रचना में आते हैं, जिससे उनकी उक्तियां बड़ी ही सरस हो जाती हैं । ऊपर के पद्यों में निम्न- लिखित मुहावरे आये हैं। जिस स्थान पर ये मुहावरे आये हैं उन स्थानों को देख कर आप अनुमान कर सकते हैं कि मेरे कथनमें कितनी सत्यताहै:- १-गोद करि लीजै २-कैसे करि पायो ३-बिलग मत मानहु ४-लोचन भरि ५-ख्याल परे ९-देखा जाता है कि सूरदास जी कभी-कभी पूर्वी हिन्दी के शब्दों को भी अपनी रचना में स्थान देते हैं। बैस', 'पियासो' इत्यादि शब्द ऊपर के पद्यों में आप देख चुके हैं। 'सुनो' और मेरे' इत्यादि खड़ी बोली के शब्द भी कभी कभी उनको रचना में आ जाते हैं। किन्तु उनकी विशेषता यह है कि वे इन शब्दों को अपनी रचनाओं में इस प्रकार खपाते हैं कि वे उनकी मुख्य भाषा (व्रजमापा) के अंग बन जाते हैं। अनेक अवस्थाओं में तो उनका परिचय प्राप्त होना भी दुस्तर हो जाता है । जिस कवि में इस प्रकार को शक्ति हो उसका इस प्रकार का प्रयोग तक-योग्य नहीं कहा जा सकता । जो अन्य प्रान्त को भाषाओं के शब्दों अथवा प्रान्तिक बोलियों के वाक्यों को अपनी रचनाओं में इस प्रकार स्थान देते हैं कि जिनसं वे