सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२४८)

भद्दी बन जाती हैं अथवा जो उनकी मुख्य भाषा की मुख्यता में बाधा पहुँचाती हैं उनकी ही कृति तर्क-योग्य कही जा सकती है। दूसरी बात यह है कि जब किसी प्रान्तिक भाषा को व्यापकता प्राप्त होती है तो उसे अपने साहित्य को उन्नत बनाने के लिये संकीर्णता छोड़ कर उदारता ग्रहण करनी पड़ती है। जिस भाषा ने इस प्रकार की उदारता ग्रहण की वही अपनी परिधि से निकल कर व्यापकता प्राप्त कर सकी। आज गोस्वामी तुलसीदास और कविवर सूरदास की रचनायें जो उत्तरीय भारत को छोड़ कर दक्षिणीय भारत के कुछ अंशों में भी आद्रित हो रही हैं तो उसका कारण यही है कि उन्होंने अपनी भाषाको उदार बनाया और उसके निजत्व को सुरक्षित रख कर अन्य भाषाओं के शब्दों को भी उसमें स्थान दिया। इस दृष्टि से देखने पर सूरदास जी ने इस विषय में जो कुछ स्वतंत्रता ग्रहण की है वह इस योग्य नहीं कि उस पर उँगली उठाई जा सके।

१०—प्राकृत भाषा के जो शब्द सुन्दर और सरस होने कारण ब्रजभाषा की बोलचाल में गृहीत रहे। सूरदास जी की रचनाओं में भी उनका प्रयोग उसी रूप में पाया जाता है। ऐसे शब्द 'सायर', 'लोयन' 'नाह', 'केहरि' इत्यादि हैं। वे अपभ्रंश भाषा के अनुसार कुछ प्रातिपदिक और प्रत्ययों को भी उकार युक्त लिखते हैं जैसे तपु, मुहु, आजु बिनु इत्यादि। ब्रजभाषा और अवधी में अपभ्रंश अथवा प्राकृत भाषा की अनेक विशेषतायें पायी जाती हैं। ऐसी अवस्था में यदि उसके कुछ शब्द अपने मुख्य रूप में इन भाषाओं में आते हैं तो उनका आना युक्ति संगत है, क्योंकि इस प्रकार की विशेषतायें और शब्दावली ही उस घनिष्टता का परिचय देती रहती हैं जो कि ब्रजभाषा अथवा अवधी का प्राकृत अथवा अपभ्रंश के साथ है। भाषा-शास्त्र की दृष्टि से इस प्रकार की घनिष्टता अधिक वांछनीय है।

११—ब्रजभाषा की बोलचाल में कुछ शब्द ऐसे हैं जिनका उच्चारण कुछ ऐसी विशेषता से किया जाता है कि वे बहुत मधुर बन जाते हैं। इन शब्दों के अन्त में एक वर्ण अथवा 'आ' इस प्रकार बढ़ा दिया जाता है