बोलियों से अलग करती है। सूरदास जी ने अपनी रचना में इनके शुद्ध प्रयोगों का बहुत अधिक ध्यान रखा है। उद्धृत पद्यों के ऐसे अधिकांश शब्दों और क्रियाओं पर चिन्ह बना दिये गये हैं। उनके देखने से ज्ञात हो जावेगा कि वे ब्रजभाषा पर कितना प्रभाव रखते थे। उनकी रचना में फारसी अरबी के शब्द भी, सामयिक प्रभाव के कारण आये हैं। परन्तु, उनको भी उन्होंने ब्रजभाषा के रंग में ढाल दिया है। इन सब विषयों पर अधिक लिखने से व्यर्थ विस्तार होगा। इस लिये मैं इस बाहुल्य से बचता हूं। थोड़ा सा उन पर विचार-दृष्टि डालने से ही अधिकांश बातें स्पष्ट हो जाँयगी।
पहले लिख आया हूं कि सूरदास जी ही ब्रजभाषा के प्रधान आचार्य हैं। वास्तव बात यह है कि उन्होंने ब्रजभाषा के लिये जो सिद्धान्त साहित्यिक दृष्टि से बनाये और जो मार्ग-प्रदर्शन किया आज तक उसी को अवलम्बन करके प्रत्येक ब्रजभाषा का कवि साहित्य-क्षेत्र में अग्रसर होता है। उनके समय से जितने कवि और महाकवि ब्रजभाषा के हुये वे सब उन्हीं को प्रवर्तित-प्रणाली के अनुग हैं। उन्हीं का पदानुसरण उस काल से अब तक कवि-समूह करता आया है, उनके समयसे अब तक का साहित्य उठा लीजिये, उसमें स्वयं-प्रकाश सूर की ही प्रभा विकीर्ण होती दिखलायी पड़ेगी। जो मार्ग उन्होंने दिखलाया वह आजतक यथातथ्य सुरक्षित है। उसमें कोई साहित्यकार थोड़ा परिवर्तन भी नहीं कर सका। कुछ कवियों ने प्रान्त-विशेष के निवासी होने के कारण अपनी रचना में प्रान्तिक शब्दों का प्रयोग किया है। परन्तु वह भी परिमित है। उन्होंने उस प्रधान आदर्श से मुँह नहीं मोड़ा जिसके लिये कविवर सूरदास कवि-समाज में आज तक पूज्य दृष्टि से देखे जाते हैं।
डाक्टर जीः ए: ग्रियसन ने उनके विषय में जो कुछ लिखा है आप लोगों के अवलोकनके लिये उसे भी यहां उद्धृत करता हूं। वे लिखते हैं:—
"साहित्य में सूरदास के स्थान के सम्बन्ध में मैं यही कह सकता हूँ कि वह बहुत ऊँचा है। सब तरह की शैलियों में वे अद्वितीय हैं। आव-