सूरदास जी में यह उच्च कोटि की मर्यादा दृष्टिगत नहीं होती। वे जब श्री मती राधिका के रूप का वर्णन करने लगते हैं तो ऐसे अंगों का भी वर्णन कर जाते हैं जो अवर्णनीय हैं। उनका वर्णन भी इस प्रकार करते हैं जो संयत नहीं कहा जा सकता। कभी कभी इस प्रकार का वर्णन अश्लील भी हो जाता है। मैं यह मानूंगा कि प्राचीन काल से कवि-परम्परा कुछ ऐसी ही रही है। संस्कृत के कवियों में भी यह दोष पाया जाता है। कवि-कुल-गुरु कालिदास भी इस दोष से मुक्त न रह सके। रधुवंश में वे इन शब्दों में पार्वती और परमेश्वर की वंदना करते हैं:—"वागर्थमिव सम्पृक्ती वागर्थ प्रतिपत्तये! जगतः पितरौ वंदे, पार्वती परमेश्वरौ"। परन्तु उन्होंने ही कुमार सम्भव के अष्टमसर्ग में भगवान शिव और जगज्जननी पार्वती का विलास ऐसा वर्णन किया है जो अत्यन्त अमर्यादित है। संस्कृतके कई विद्वानों ने उनकी इस विषयमें कुत्सा की है। यह कवि-परम्परा ही का अन्धानुकरण है कि जिससे कवि-कुल-गुरु भी नहीं बच सके, फिर ऐसी अवस्था में सूरदास जी का इस दोष से मुक्त न होना आश्चर्यजनक नहीं। यह गोस्वामीजी की ही प्रतिभा की विशेषता है कि उन्होंने चिरकाल-प्रचलित इस कुप्रथाका त्याग किया और यह उनकी भक्तिमय प्रवृत्ति का फल है। इस भक्ति के बल से ही उनकी कविताके अनेक अंश अभूतपूर्व और अलौकिक हैं। इस प्रवृत्ति ने ही उन को बहुत ऊँचा उठाया और इस प्रवृत्ति के बल से ही इस विषय में वे सूरदास जी पर विजयी हुये। आत्मोन्नति, सदाचार-शिक्षा, समाज-संगठन, आर्य जातीय उच्च भावों के प्रदर्शन, सद्भाव. सत् शिक्षा के प्रचार एवं मानव प्रकृति के अध्ययन में जो पद तुलसी दास जी को प्राप्त है उस उच्च पद को सूरदास जी नहीं प्राप्त कर सके। दृष्टि-कोण की व्यापकता में भी सूरदास का वह स्थान नहीं है जो स्थान गोस्वामी जी का है। मैं यह मानूंगा कि अपने वर्णनीय विषयों में सूरदास जी की दृष्टि बहुत व्यापक है। उन्होंने एक एक विषय को कई प्रकार से वर्णन किया है। मुरली पर पचासों पद्य लिखे हैं तो नेत्रों के वर्णन में सैकड़ों पद लिख डाले हैं। परन्तु सर्व विषयों में अथवा शास्त्रीय सिद्धान्तों के निरूपण में जैसी विस्तृत दृष्टि गोस्वामीजी की है उनकी
पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२७६
दिखावट