हुआ है। मैं उनकी रचना की पंक्तियों को ले कर इस बात को प्रमाणित कर सकता हूं। किन्तु यह बाहुल्य मात्र होगा। गोस्वामी जी की उद्धृत रचनाओं को पढ़ कर आप लोग स्वयं इस बात को समझ सकते हैं कि उन्होंने किस प्रकार दोनों भाषाओं के नियमों का पालन किया-मैं उसका दिग्दर्शन मात्र ही करूंगा। युक्तिविकर्ष के प्रमाण भूत ये शब्द हैं, गरब, अरध, मूरति। कारकों का लोप इन वाक्यांश में पाया जाता है 'बोरि कर गोरस', 'बाल गेवाइ', 'सिर धरहि आन के', 'वचन विरंचि हरावहिं', 'पालने पौढ़िये', 'किलकनि खानि', 'तुलसी भनिति', 'सोनेचोंच मढ़ैहों',रामलखन उर लैहों', 'बेद बड़ाई', 'जगत मातु'। 'श', 'ण', 'क्ष' इत्यादि के स्थान पर 'स', 'न', 'छ'का व्यवहार 'सिंगारू','प्रससा', 'परबस','सिसु', 'पानि', 'भग्न', 'गनक','लच्छि', आदि में है। पञ्चम वर्ण की जगह पर अनुस्वार का प्रयोग 'मंजुल', 'विरंचि', 'कंचनहि', आदि में मिलेगा। शब्द के आदि के 'य' के स्थान पर 'ज' का व्यवहार जुवति,जागु, जुगुति आदि में आप देखेंगे। संज्ञाओं और विशेषणों के, अपभ्रंश के अनुसार, उकारान्त प्रयोग के उदाहरण ये शब्द हैं:— कपारु, मुहुं, मीठु,आदि। ह्रस्व का दीर्घ और दीर्घ का ह्रस्व प्रयोग 'कमनीया', 'बाता', 'जुवति', 'रेख' इत्यादि शब्दों में हुआ है। प्राकृत शब्दों का उसी के रूप में ग्रहण तीय, नाह इत्यादि में है। ब्रजभाषा की रचना में आप को संज्ञायें क्रियायें दोनों अधिकतर ओकारान्त मिलेंगी। और इसी प्रकार अवधी की संज्ञायें और क्रियायें नियमानुकूल अकारान्त पायी जायेंगी। उराहनो, बहुरो, पायो, आयो, बड़ो कहब, रहब, होब, देन, राउर इत्यादि इसके प्रमाण हैं। अधिकतर तद्भव शब्द ही दोनों भाषाओं में आये हैं। परन्तु जहां भाषा तत्सम शब्द लाने से ही सुंदर बनती है वहां गोस्वामी जी ने तत्सम शब्दों का प्रयोग भी किया है। जैसे 'प्रिय', 'कुरूप', 'रिपु', 'असत्य', 'पल्लव' इत्यादि। मुहावरों का प्रयोग भी उन्होंने अधिकता से किया है। परन्तु विशेषता यह है कि जिस भाषा में मुहावरे आये हैं उनको उसी भाषा के रूप में लिखा है जस 'नयनभरि', 'मुँह लाये', 'मूड़हिं चढ़ी','जनम भरब', 'नकवानी आयो', 'ठकुरसुहातो', 'बवा सो लुनिय', इत्यादि।
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