पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२८८

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ही से ग्रहण करते हैं तो अत्युक्ति नहीं करता, मेरा यह अनुमान साधारण जन संख्या से कुछ कम ही है।वर्तमान समय में उनका जितना प्रभाव है यदि उसके आधार पर हम अपना निर्णय स्थिर करें तो वे एशिया के तीन या चार महान लेखकों में परिगणित होंगे" १

    डाकर जो० ए० प्रियर्सन का यह कथन है:-

"भारतवर्ष के इतिहास में तुलसीदास का बहुत अधिक महत्व है। उनके काव्य की साहित्यिक उत्कृष्टता की ओर न भी ध्यान दें तो भागलपुर से लेकर पंजाब तक और हिमालय से लेकर नर्मदा तक समस्त श्रेणियों के लोगों का उन्हें आदर पूर्वक ग्रहण करना ध्यान देने योग्य बात है। तीन सौ से भी अधिक वर्षों से उनके काव्यका हिन्दू जनता की बोलचाल, तथा उसके चरित्र और जीवन से सम्बन्ध है। वह उनकी कृति को केवल उसके काव्य-गत सौन्दर्य के लिये ही नहीं चाहती है. उसे श्रद्धा की दृष्टि से ही नहीं देखती है, उसे धार्मिक ग्रंथ के रूप में पूज्य समझती है । दस करोड़ जनता के लिये वह बाइबिल (Bible) के समान है और वह उसे उतना ही ईश्वरप्रेरित समझती है जितना अंग्रेज़ पादड़ी बाइबिल को समझता है। पंडित लोग भले ही वेदों को चर्चा और उनमें से थोड़े से लोग उनका अध्ययन भी करें, भले ही कुछ लोग पुराणों के प्रति श्रद्धा भक्ति भी प्रदर्शित करें किन्तु पठित वा अपठित विशाल जनसमूह तो तुलसी कृत रामायण ही से अपने आचार-धर्म की शिक्षा ग्रहण करता है। हिन्दु-स्थान के लिये यह वास्तव में सौभाग्य की बात है, क्योंकि इसने देश को शैव धर्म के अनाचरणीय क्रिया-कलाप से सुरक्षित रक्खा है। बंगाल जिस दुर्भाग्य के चक्कर में पड़ गया उससे उत्तरी भारत के मूल त्राण करनेवाले तो रामानन्द थे, किन्तु महात्मा तुलसी दास ही का यह काम था कि उन्होंने पूर्व और पश्चिम में उनके मत का प्रचार किया और उसमें स्थायिता का संचार कर दिया।" १]] | "The importance of Tulsidas in the history of India can not be overrated. Pulling the literary merits of his work out of the question,the fact of its universal acceptance by all classes, from Bhagalpur to the