अलंकार चन्द्रिका नामक ग्रन्थों की रचना की है। नाम से ज्ञात होता है कि ये दोनों ग्रन्थ अलंकार के होंगे। किन्तु ये ग्रन्थ भी नहीं मिलते। इस लिये यह नहीं कहा जा सकता कि ये ग्रन्थ कैसे थे, साधारण या विशद। मेरा विचार है कि वे साधारण ग्रंथ ही थे। अन्यथा इतने शीघ्र लुप्त न हो जाते: मोहन लाल मिश्र ने 'श्रृंगार सागर' नामक ग्रंथ की रचना की थी। ग्रन्थ का नाम बतलाता है कि वह रस-सम्बन्धी ग्रन्थ होगा। इन लोगों के उपरान्त केशवदास जी ही कार्य-क्षेत्र में आते हैं। वे संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान थे। वंश-परम्परा से उनके कुल में संस्कृत के उद्भट विद्वान होते आते थे। उनके पितामह पं॰ कृष्णदत्त मिश्र संस्कृत के प्रसिद्ध नाटक 'प्रबोध-चन्द्रोदय' के रचयिता थे। उनके पिता पं॰ काशी नाथ भी संस्कृत भाषा के प्रसिद्ध विद्वान् थे। उनके बड़े भाई पं॰ वलभद्र मिश्र संस्कृत के विद्वान तो थे ही, हिन्दी भाषा पर भी बड़ा अधिकार रखते थे। इनका बनाया हुआ नखशिख-सम्बन्धी ग्रन्थ अपने विषय का अद्वितीय ग्रन्थ है। ऐसे साहित्य-पारंगत विद्वानों के वंश में जन्म ग्रहण कर के केशवदास जी का हिन्दी भाषा के रीति-ग्रन्थों के निर्माण में विशेष सफलता लाभ करना आश्चर्यजनक नहीं। वे संकोच के साथ हिन्दी क्षेत्र में उतरे, जैसा निम्न लिखित दोहे से प्रकट होता है:—
भाषा बोलि न जानहीं, जिनके कुल के दास।
तिन भाषा कविता करी, जड़मति केशवदास।
परन्तु जिसविषय को उन्होंने हाथ में लिया उसको पूर्णता प्रदान की। उनके बनाये हुए 'कविप्रिया' और 'रसिकप्रिया' नामक ग्रन्थ रीति ग्रन्थों के सिरमौर हैं। पहले भी साहित्य विषय के कुछ ग्रन्थ बने थे और उनके उपरान्त भी अनेक रीति ग्रन्थ लिखे गये परन्तु अबतक प्रधानता उन्हीं के ग्रन्थों को प्राप्त है। जब साहित्य शिक्षा का कोई जिज्ञासु हिन्दी-क्षेत्र में पदार्पण करता है, तब उसको 'रसिक-प्रिया' का 'रसिक' और 'कविप्रिया' का प्रेमिक अवश्य बनना पड़ता है। इससे इन दोनों ग्रन्थों की महत्ता प्रकट है। जिन्होंने इन दोनों ग्रन्थों को पढ़ा है वे जानते हैं कि इनमें कितनी प्रौढ़ता