पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२९२

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भावुकता और सहृदयता चाहिये वैसी इस ग्रन्थ में नहीं मिलती। ग्रन्थ क्लिष्ट भी बड़ा है । एक एक पद्यों का तीन तीन चार चार अर्थ प्रकट करने की चेष्टा करने के कारण इस ग्रन्थ की बहुत सी रचनायें बड़ी ही गूढ़ और जटिल हो गयी हैं, जिससे उनमें प्रसाद गुण का अभाव है। इन विचारों के विषय में मुझे यह कहना है कि किसी भी ग्रन्थ में सर्वाङ्ग-पूर्णता असम्भव है । उसमें कुछ न कुछ न्यूनता रह ही जाती है । संस्कृत के बड़े बड़े महाकाव्य भी निर्दोष नहीं रहे। इसके अतिरिक्त आलोचकों की प्रकृति भी एकसी नहीं होती। रुचिभिन्नता के कारण किसी को कोई बिषय प्यारा लगता है और कोई उसमें अरुचि प्रकट करता है । प्रवृत्ति के अनुसार ही आलोचना भी होती है । इसलिये सभी आलोचनाओं में यथार्थता नहीं होती । उनमें प्रकृतिगत भावनाओं का विकास भी होता है । इसीलिये एक ही ग्रन्थ के विषय में भिन्न भिन्न सम्मतियां दृष्टिगत होती हैं । केशव दास जी की रामचन्द्रिका के विषय में भी इस प्रकार की विभिन्न आलोचनायें हैं। किसी के विशेष विचारों के विषय में मुझे कुछ नहीं कहना है । किन्तु देखना यह है कि रामचन्द्रिका के विषय में उक्त तर्कनायें कहां तक मान्य हैं। प्रत्येक ग्रन्थकार का कुछ उद्देश्य होता है और उस उद्देश्य के आधार पर ही उसकी रचना आधारित होती है। केशवदासजीकी रचनाओं में, जिन्हें प्रसाद गुण देखना हो वे 'कविप्रिया' और 'रसिक प्रिया' को देखें। उनमें जितनी सहृदयता है उतनी ही सरसता है। जितनी सुन्दर उनकी शब्द-विन्यास-प्रणाली है उतनी ही मधुर है उनकी भाव-व्यञ्जना। रामचन्द्रिका की रचना पाण्डित्य-प्रदर्शन के लिये हुई है और मैं यह दृढ़ता से कहता हूँ कि हिन्दी संसार में कोई प्रवन्ध-काव्य इतना पाण्डित्यपूर्ण नहीं है। मैं पहले कह चुका हूं कि वे संस्कृत के पूर्ण विद्वान थे । उनके सामने शिशुपाल-वध और' नेषध' का आदर्श था । वे उसी प्रकार का काव्य हिन्दी में निर्माण करने के उत्सुक थे। इसीलिये रामचन्द्रिका अधिक गूढ़ है। साहित्य के लिये सब प्रकार के ग्रन्थों की आवश्यकता होती है। यथा-स्थान सरलता और गूढ़ता दोनों बांछनीय हैं। यदि लघुत्रयी आदरणीय है तो वृहत्रयी भी। रघुवंश को यदि आदर की दृष्टि से देखा जाता है तो