पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२७९)

नैषध को भी । यद्यपि दोनों की रचना-प्रणाली में बहुत अधिक अन्तर है। प्रथम यदि मधुर भाव-व्यञ्जना के लिये आदरणीय है तो द्वितीय अपनी गम्भीरता के लिये । शेक्सपियर और मिलटन की रचनाओं के सम्बन्ध में भी यही बात कही जासकती है । केशवदासजी यदि चाहते तो 'कविप्रिया' और 'रसिक प्रिया' की प्रणाली ही रामचन्द्रिका में भी ग्रहण कर सकते थे। परन्तु उनको यह इष्ट था कि उनको एक ऐसी रचना भी हो जिसमें गम्भीरता हो और जो पाण्डित्याभिमानी को भी पाण्डित्य-प्रकाश का अवसर दे अथच उसकी विद्वत्ता को अपनी गम्भीरता को कसौटी पर कस सके । इस बात को हिन्दी के विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। प्रसिद्ध कहावत है - 'कवि को दोन न चहै बिदाई। पूछे केशव की कविताई।एक दूसरे कविता-मर्मज्ञ कहते हैं:-

उत्तम पद कवि गंग को, कविता को बलबीर।
केशव अर्थ गँभीरता, सूर तीन गुन धीर।

इन बातों पर दृष्टि रख कर रामचन्द्रिका की गंभीरता इस योग्य नहींषकि उस पर कटाक्ष किया जावे। जिस उद्देश्य से यह ग्रन्थ लिखा गया है. मैं समझता हूं. उसकी पूर्ति इस ग्रन्थ द्वारा होती है। इस ग्रन्थ के अनेक अंश सुन्दर, सरस और हृदय ग्राही भी है। और उनमें प्रसाद गुण भी पाया जाता है । हाँ. यह अवश्य है कि वह गंभीरता के लिये ही प्रसिद्ध है। मैं समझता हूं कि हिन्दी संसार में एक ऐसे ग्रन्थ की भी आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति करना केशवदास जी का ही काम था । अब केशवदास जी के कुछ पद्य मैं नीचे लिखता हूं। इसके बाद भाषा और विशेषताओं के विषय में आप लोगों की दृष्टि उनकी ओर आकर्षित करूँगाः--

१-भूषण सकल घनसार ही के घनश्याम,
कुसुम कलित केश रही छवि छाई सी।
मोतिन की लरी सिरकंठ कंठमाल हार,
और रूप ज्योति जात हेरत हेराई सी