प्यारी को परसि पौन गयो मानसर पँह
लागत ही औरै गति भई मानसर की।
जलचर जरे औ सेवार जरि छार भयो,
जल जरि गयो पंक सूख्यो भूमि दरकी।
मृगहूं ते सरस विराजत बिसाल दृग देखिये,
न अस दुति कौलहृ के दल मैं।
गंग घन दुज से लसत तन आभूषन ठाढ़े
द्रुम छाँह देख ह्वै गई विकल मैं।
चख चित चाय भरे शोभा के समुद्र माहिँ
रही ना सँभार दसा औरै भई पल में।
मन मेरो गरुओ गयो री बूड़ि मैं न पायो,
नैन मेरे हरुये तिरत रूप जल में।
इन प्रसिद्ध कवियों के अतिरिक्त इस सोलहवीं सदी में नरोत्तमदास नामक एक बड़े सह्रदय कवि हो गये हैं। व जिला सीतापुर के रहने वाले ब्राह्मण थे। इनके दो ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। एक 'सुदामा चरित्र' और दूसरा 'ध्रुव चरित्र'। ये दोनों खण्ड काव्य हैं। इनमें से सुदामाचरित्र की कविता बड़ी ही सरस है। उसमें से दो पद्य नीचे लिखे जाते हैं:-
१-कोदो समाँ जुरतौ भरि पेट न
चाहति तौ दधिदृध मिठौती।
सीत न बीतत जो सिसियात।
तौं हौं हठती पै तुम्हैं न हठौती।
जो जनती न हितृहरि से तो मैं
काहे को द्वारिका ठेलि पठौती।