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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३४१

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१-आभड़ छोत अतीत सों कीजिये
२-बिलाईरु कूकुरु चाटत हांडी

३-रांधत प्याज बिगारत नाज न आवत लाज करें

सब भच्छन


४-ब्राह्मण छत्रिय बैसरु सूदर चारों ही बर्नके मच्छ बघारत
५-फूहड़ नार फतेपुर की.................. ।
६-फिर आवा नग्र मँझारी

इनकी रचनाओं में विदेशी भाषा के शब्द भी आते हैं, किन्तु बहुत कम और नियमानुकूल। निम्न लिखित पद्य के उन शब्दों को देखिये जो चिन्हित हैं:-

१–'खबरि नहीं सिर भार की'
२-'कागद की हथिनी कीनी'
३- खंदक कीना जाई'
४-'तब बिदा होइ घर आवा'
५-'मन में कछु फिकिरि उपावा'

इन पद्यों में आवा', 'उपावा' इत्यादि का प्रयोग भी चिंतनीय है। ये प्रयोग अवधी के ढंग के हैं। उनकी समस्त रचनाओं पर दृष्टि डालकर यह कहा जा सकता है कि निर्गुणवादियों की जितनी रचनायें हैं उनमें भाषा की प्राञ्जलता एवं नियम पालन की दृष्टि से सुंदरदासजी की कृति ही सर्वप्रधान है। जो भाषा-सम्बन्धी विभिन्नता कहीं कहीं थोड़ी बहुत मिलती है, साहित्यिक दृष्टि से वह उपेक्षणीय है। कतिपय शब्दों और वाक्य-विन्यास के कारण यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी भाषा खिचड़ी है और उन्होंने भी सधुक्कड़ी भाषा ही लिखी। इन्हीं के समय में दादू सम्प्रदाय में निश्चलदास नाम के एक प्रसिद्ध साधु-विद्वान् हो गये हैं,