रसखान के लिखे हुये दो ग्रन्थ पाये जाते हैं, 'सुजान रसखान' और 'प्रेम वाटिका' दोनों की भाषा एक ही है और दोनों में प्रेम का प्रवाह बहता दिखलायी पड़ता है। 'सुजान रसखान' के पद्य आप देख चुके हैं। दो दोहे 'प्रेम,वाटिका' के भी देखिये:-
अति सूछम कोमल अति हि अति पतरो अति दूर।
प्रेम कठिन सब ते सदा नित इक रस भर पूर ।
डरै सदा चाहै न कछु सहै सबै जो होय ।
रहै एक रस चाहि के प्रेम बखानै सोय ।
इसी प्रेम परायणता के कारण रसखान की गणना भक्तों में की जाती है। और यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि उनके दोनों ग्रन्थ भक्ति भावना से पूर्ण हैं । वे छोटे हों, परन्तु उनमें इतना प्रेम रस भग है कि उसके कवि को सच्चा प्रेमिक मानने के लिये विवश होना पड़ता है। सच्ची तल्लीनता ही भक्ति है। इसलिये रसखान की गणना यदि वैष्गव भक्तों में हुई तो यथार्थ हुई। विधर्मी और विजातीय हो कर भी यदि उन्होंने भगवान कृष्णचन्द्र को पूर्ण रूपेण आत्म-समर्पण किया तो यह उनकी सच्ची भक्ति भावना ही थो। और ऐसी दशा में उनको कौन भक्त स्वीकार न करेगा ?
वनारसीदास जैन की गणना भी भक्त कवियों में होती है। यह कभी आगग और कभी जौनपुर में रहते थे। इनका यौवन-काल प्रमादमय था। परन्तु थोड़े दिनों बाद इनमें ऐसा परिवर्तन हुआ कि इन्होंने अपने शृंगार रस के ग्रन्थ को फाड़ कर गोमती में फेंक दिया और ऐसो रचनाओं के करने में तल्लीन हुये जो मक्ति और ज्ञान-सम्बन्धी कहो जा सकती हैं। इनके भाव-पूर्ण ग्रन्थों की संख्या आठ-दस बतलायी जाती है, जिनमें से अधिकतर पद्य में लिखे गये हैं। इनको गद्य रचनायें भी हैं। ये जैन विद्वान थे, परन्तु इनमें संकोणता नहीं थी। इनका ध्रुव वंदना नामक ग्रंथ इसका प्रमाण है। इनके कुछ पद्य देखिये:-