पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३५०

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१) सेनापति कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। उन्होंने 'काव्य-कल्पद्रुम' और 'कवित-रत्नाकर' नामक दो ग्रन्थों की रचना की। वे अपने समय के बड़े ही विख्यात कवि थे। हिन्दू प्रतिष्ठित लोगों में इनका सम्मान तो था ही मुसल्मानों के दरबारों में मी उन्होंने पूरी प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। व्रजमाषा जिन महाकवियों का गर्व कर सकती है उनमें सेनापति का नाम मी लिया जाता है । उनकी रचनायें अधिकतर प्रौढ़ सुन्दर. सरस और मावमयी हैं। षड्ऋतु का जेसा उदात्त और व्यापक वर्णन सेनापति ने किया वैसा दो एक महाकवियों की लेखनी ही कर सकी। उन्होंने अपना परिचय इस प्रकार दिया है:-

दीक्षित परशुराम दादा हैं विदित नाम ।
जिन कीन्हें जज्ञ जाकी विपुल बड़ाई है।
गंगाधर पिता गंगाधर के समान जाके ।
गंगातीर वसति “अनूप" जिन पाई है ।
महा जानमनि विद्या दान हूँते चिन्ता मनि।
हीरामनि दीक्षित ते पाई पंडिताई है ।
सेनापति सोई सीतापति के प्रसाद जाकी।
सब कवि कान दै सुनत कविताई है ।

कहा जाता है कि अंत में वे बिरक्त हो गये थे और क्षेत्र-सन्यास ले लिया था। इस भाव के पद्य भी उनकी रचनाओं में पाये जाते हैं। एक पद्य देखियेः-

केतो करौ कोय पैये करम लिखोय ताते।
दूसरो न होय डर सोय ठहराइये।
आधी ते सरस बाति गई है बयस ।
अब कुजन बरस बीच रस न बढ़ाइये।