पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३४९

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पक्षी-कृमि तक में व्याप्त है। परमार्थमावना उनमें है ही नहीं। यदि यह मावना मिलती है तो मनुष्य में ही मिलती है। परन्तु मनुष्य की इस भावना पर अधिकतर सांसारिकता का ही रंग चढ़ा है। परमार्थ- चिन्ता तो वह कभी कभी ही करता है। वह मी समष्टि-रूप से नहीं, व्यष्टि रूप से। यही कारण है कि कुछ महात्माओं और विद्या व्यसनी विद्वानों को छोड़ कर अधिकांश जनता शृंगार रस की ओर ही विशेष आकर्पित रहती है। और ऐसी दशा में यदि उसी के गीत अधिक कंठों से गाये जाते सुने जावें, उसी के ग्रन्थ अधिकतर सरस हृदय द्वारा रचे जावें और उनमें अधिकतर सरसता लालित्य और सुन्दर शब्द-विन्यास पाये जावें तो कोई आश्चर्य नहीं । अतएव सत्रहवीं शताब्दीमें यह स्वाभाविकता ही यदि बलवती हो कर कवि वृन्द द्वारा कार्य-क्षेत्र में आयी तो कोई विचित्र बात नहीं। इस शताब्दी के जितने बड़े बड़े कवि और रीतिग्रन्थकार हैं उनमें से अधिकांश इसी रंग में रेंगे हुये हैं और उनकी संख्या भी थोड़ी नहीं है। मैं सब की रचनाओं को आप लोगों के सामने उपस्थित करने में असमर्थ हूं। उनमें जो अग्रणी और प्रधान हैं और जिनकी कृतियों में 'भावगत' सुन्दर व्यंजनाय अथवा अन्य कोई विशेपतायें हैं। मैं उन्हीं की रचनायें आप लोगों के सामने उपस्थित कर के यह दिग्खलाऊंगा कि उस समय ब्रजभापा का श्रृंगार कितना उत्तम और मनोमोहक हुआ और किस प्रकार व्रजभाषा सुन्दर ओर ललित पदों का मांडार बन गयी। जिन सुकवियों अथवा महाकवियों की रचनाओं ने व्रजभापा संसार में उस समय कल्पना राज्य का विस्तार किया था उनमें से कुछ विशिष्ट नाम ये हैं-

(१) सेनापति, (२) बिहारी लाल. (३) चिन्तामणि, (४) मति राम, (५) कुलपति मिश्र, (६) जसवन्त सिंह. (७) बनवारी. (८) गोपाल चन्द्र- मिश्र, (९) बेनी और (१०) सुखदेव मिश्र । में क्रमशः इन लोगों के विषय में अपना विचार प्रकट करूगा और यह भी बतलाऊंगा कि इनकी रच- नाओं का क्या प्रमाव व्रजमापा पर पड़ा। बीच बीच में अन्य रसों के विशिष्ट महाकवियों की चर्चा भी करता जाऊंगा।