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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३५५

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इस बात का उदाहरण है कि घट में समुद्र कैसे भरा जाता है । गोस्वामी तुलसीदास की रामायण छोड़ कर और किसी ग्रन्थ को इतनी सर्व-प्रियता नहीं प्राप्त हुई जितनी "बिहारी सतसई को"। रामचरित मानस के अतिरिक्त और कोई ग्रन्थ ऐसा नहीं है कि उसकी उतनी टीकायें बनी हों जितनी सतसई की। अब तक बन चुकी हैं। बिहारी लाल के दोहाओं के दो चरण बड़े बड़े कवियों के कवित्तों के चार चरणों और सहृदय कवियों के रचे हुये छप्पयों के छः चरणों से अधिकतर भाव-व्यंजन में समर्थ और प्रभावशालिता में दक्ष देखे जाते हैं। एक अंग्रेज़ विद्वान् का यह कथन कि "Brevity is the soul of wit and it is also the soul of art' 'संक्षिप्तता काव्य चातुरी की आत्मा तो है ही, कला की भी आत्मा है।" बिहारी की रचना पर अक्षरशः घटित होता है। बिहारी की रचनाओं की पंक्तियों को पढ़ कर एक संस्कृत विद्वान् की इस मधुर उक्ति में संदेह नहीं रह जाता कि “अक्षराः कामधेनवः !” (अक्षर कामधेनु हैं ) वास्तव में बिहारी के दोहों के अक्षर कामधेनु हैं जो अनेक सूत्र से अभिमत फल प्रदान करते हैं । उनको पठन कर जहां हृदय में आनंद का स्रोत उमड़ उठता है वहीं विमुग्ध मन नंदन कानन में बिहार करने लाता है। यदि उनकी भारती रस-धारा प्रवाहित करती है तो उनकी भाव-व्यंजना पाठकों पर अमृत-बर्षा करने लगती है । सतसई का शब्दविन्यास जैसा ही अपूर्व है वैसा ही विलक्षण उसमें झंकार है। काव्य एवं साहित्य का कोई गुण ऐसा नहीं जो मूर्तिमन्त हो कर इस ग्रन्थ में विराजमान न हो और कवि कर्म की ऐसी कोई विभूति नहीं जो इसमें सुविकसित दृष्टिगत न हो। मानसिक सुकुमार भावों का ऐसा सरस चित्रण किसी साहित्य में है या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता । परन्तु जी यही कहता है कि यह मान लिया जावे कि यदि होगा तो ऐसा ही होगा किन्तु यह लोच कहाँ ? इस ग्रन्थ में शृंगार रस तो प्रवाहित है ही, यत्र तत्र अनेक सांसारिक विषयों का भी इसमें बड़ा ही मर्म-स्पर्शी वर्णन है। अनेक रहस्यों का इसमें कहीं कहीं ऐसा निरूपण है जो उसकी स्वाभाविकता का सच्चा चित्र आंखों के सामने ला कर खड़ा करता है। बिहारी