पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३५८

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है। इस गम्भीर विषय को एक अन्योक्ति के द्वारा बिहारीलाल ने जिस सुन्दरता और सरसता के साथ कहा है वह अभूतपूर्व है। वास्तव में उनके थोड़े से शब्दों ने बहुत बड़े व्यापक सिद्धांत पर प्रकाश डाला है:-

को छूट्यो येहि जाल परि कत कुरंग अकुलात।
ज्यों २ सरुझि भज्यो चहै त्यों २ अरुझ्यो जात॥

यौवन का प्रमाद मनुष्य से क्या नहीं कराता?, उसके प्रपंचों में पड़ कर कितने नाना संकटों में पड़े, कितने अपने को बरबाद कर बैठे, कितने पाप-पंक में निमग्न हुये, कितने जीवन से हाथ धो बैठे और कितनोंही ने उसके रस से भींग कर अपने सरस जीवन को नीरस बना लिया। हम आप नित्य इस प्रकार का दृश्य देखते रहते हैं। इस भाव को किस प्रकार बिहारीलाल चित्रण करते हैं उसे देखिये:-

इक भींजे चहले परे बूड़े बहे हजार।
किते न औगुन जग करत नै बै चढ़तीबार॥

परमात्मा आंख वालों के लिये सर्वत्र है। परंतु आज तक उसको कौन देख पाया? कहा जा सकता है कि हृदय की आंख से ही उसे देख सकते हैं, चर्म-चक्षुओं से नहीं। चाहे जो कुछ हो, किन्तु यह सत्य है कि वह सर्व व्यापो है और एक एक फूल और एक एक पत्ता में उसकी कला विद्यमान है। शास्त्र तो यहां तक कहता है, कि 'सर्व खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्तिकिंचन। जो कुछ संसार में है वह सब ब्रह्म है, इसमें नानात्व कुछ नहीं है। फिर क्या रहस्य है कि हम उसको देख नहीं पाते? बिहारीलालजी इस विषय को जिस मार्मिकता से समझाते हैं उसकी सौ मुख से प्रशंसा की जा सकती है। वे कहते हैं:-

जगत जनायो जो सकल सो हरि जान्यो नाहिं।
जिमि आंखिनि सब देखिये आंखिन देखी जाहिं।

एक उर्दू शायर मी इस भाव को इस प्रकार वर्णन करता है:-

बेहिजाबी वह कि जल्वा हर जगह है आशिकार।
इसपर घूँघट वहकि सूरत आजतक नादीदा है॥