पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३६९

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१-देवल गिरावते फिरावते निसान अली,

ऐसे डूबे राव राने सबै गये लब की।

गौरा गनपति आप औरन को देत ताप,

आप के मकान सब मार गये दबकी।

पीरां पैगम्वरां दिगम्बरां दिखाई देत,

• सिद्ध की सिधाई गयी रही बात रबकी।

कासिहुं ते कला जाती मथुरा मसीत होती,

सिवाजी न होतो तौसुनति होतीसबकी।

२-वेद राखे विदित पुरान राखे सारजुत,

रामनाम राख्यो अति रसना सुघर मैं ।

हिन्दुन की चोटी रोटी राखो है सिपाहिन की,

कांधे मैं जनेऊराख्यो माला राखी गरमैं ।

मींड़ि राखे मुगल मरोरि राखे पादशाह,

बैरी पीसि राखे बरदान राख्यो कर मैं ।

राजन की हद्द राखी तेग बल सिवराज,

देव राखे देवल स्वधर्म राख्यो घर मैं ।

उनके कुछ बीररस के पद्यों को भी देखिये ।

३-डाढ़ी के रखैयन की डाढ़ी सी रहति छाती,

बाढ़ी मरजाद जस हद्द हिन्दुआने की। •

कढ़ि गयी रैयत के मन की कसक सब,

मिटि गयी ठसक तमाम तुरकाने की।

भूषन भनत दिल्लीपति दिल धकधक,

सुनि सुनि धाक सिवराज मरदाने की।