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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३८८

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दान दया घमसान में जाके हिये उछाह ।
सोई बीर बखानिये ज्यों छत्ता छितिनाह ।
उमड़ि चल्योदाराके सौंहैं, चढ़ी उदंड युद्ध-रस भौंहैं।
तबदारादिल दहसति बाढ़ी, चूमन लगे सबन कीदाढ़ी।
को भुजदंड समर महिं ठोंकै, उमड़े प्रलय-सिंधु कोरोकै।
छत्रसाल हाड़ा तहँ आयो, अरुन रंग आननृछबिछायो
भयो हरौल बजाय नगारो, सारधार को पहिरनहारो
दौरि देस मुगलनके मारो, दपटि दिली के दलसंहारो।
ऐंड एक सिवराज निवाही, करै आपने चित की चाही।
आठ पात साही झक झोरै, सूबन पकरिदंड लै छोरै।
काटि कटक किरवान बल बाँटि जंवुकनि देहु ।
ठाटि जुद्ध एहिरीति सों, बाँटि धरनि धरि लेहु ।

मैं यह बराबर प्रकट करता आया हूं कि सत्रहवीं शताब्दी में उत्तरी भारत में व्रजभाषा का प्रसार अधिक हो गया था। इस विस्तार के फलसे ही पंजाब प्रान्त में दो प्रतिष्ठित प्रबंधकार दृष्टिगत होते हैं। उनमें से एक हृदय- गम हैं और दूसरे गुरु गोविन्द सिंह । क वि हृदयगम जाति के खत्री थे। उन्होंने संस्कृत हनुमन्नाटक के आधार से अपने ग्रंथ की रचना की और उसका नाम भी हनुमन्नाटक ही रखा। इस ग्रंथ की रचना इतनी सरस है और इस सहदयता के साथ वह लिखा गया है कि गुरु गोबिन्द सिंह इस ग्रंथ को सदा अपने साथ रखते और उसकी मधुर रचनाओं को पढ़ पढ़ मुग्ध हुआ करते थे। इस ग्रंथ की भाषा साहित्यिक व्रजभाषा है। कहीं कहीं एक दो पंजाबी शब्द मिल जाते हैं। ग्रंथ की सरस और प्रांजल रचना देख कर यह प्रतीत नहीं होता कि यह किसी पंजाबी का लिखा हुआ है । कविहृदयराम में भाव चित्रण की सुंदर शक्ति है। उन्हों ने इस ग्रंथ को लिख कर यह बतलाया है कि उनमें प्रबंध काव्य लिखने की