पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४००

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करना विडम्बना मात्र है। क्योंकि ऐसे लोगों के हृदय में वह उछ्वासमय उच्च भाव उत्पन्न हो ही नहीं सकते जो एक आत्म-निर्भर स्वतंत्र अथच मनस्वी कवि अथवा महाकवि में स्वभावत: उद्भूत होते हैं। उन्मुक्त कवि कर्म हो कवि-कर्म है, जिसका कार्य चित्त का स्वतंत्र उद्गार है। जो हृदय किसी को चापलूसी अथवा तोषामोद में निरत है और अपने आश्रयदाता की इच्छानुसार कविता करने के लिये विवश है या उसकी उचित अनुचित प्रशंसा करने में व्यस्त है, वह कवि उस रत्न को कैसे प्राप्त कर सकता है जो स्वभावतया तरंगायमान मानस-उदधि से प्राप्त होते हैं। मेरा विचार है, इस कथन में सत्यता है। परन्तु इससे इस परिणाम पर नहीं पहुंचा जा सकता कि कोई कवि किसी के आश्रित रह कर सत्कवि या महाकवि हो ही नहीं सकता। क्योंकि प्रथम तो कवि स्वाधीनता-प्रिय होता है, दूसरी बात यह कि कवि का अधिकतर सम्बन्ध प्रतिभा से है। इसलिये किसी का आश्रित होना उसके कवित्व गुण का वाधक नहीं हो सकता। किसी आत्म विक्रयी की बात और है। हां, बंधन-रहित किसी स्वतंत्र कवि का महत्व उससे अधिक है, यह बात निस्संकोच भाव से स्वीकार की जा सकती है। कविवर देवदत्त में जो विलक्षण प्रतिभा विकसित दृष्टिगत होतो है उसका मुख्य कारण यही है कि वे स्वतंत्र प्रकृति के मनुष्य थे, जिससे वे किसी के आश्रय में चिरकाल तक न रह सके। जिस दरबार में गये उसमें अधिक दिन ठहरना उन्हें पसंद नहीं आया। मालूम होता है कि बंधन उनको प्रिय नहीं था। मैं समझता हूं इससे हिन्दी साहित्यको लाभ ही हुआ। क्योंकि उनके उन्मुक्त जीवनने उनसे अधिकतर ऐसी रचनायें करायीं जो सर्वथा स्वतंत्र कही जा सकती हैं। प्रत्येक भाषा के साहित्य के लिये ऐसी रचनायें हो अधिक अपेक्षित होती हैं, क्योंकि उनमें वे उन्मुक्त धारायें बहती मिलती हैं जो पराधीनता एवं स्वार्थपरता दोष से मलिन नहीं होतों। कविवर देवदत्त की रचनाओं का जो अंश इस ढंग में ढला हुआ है वही अधिक प्रशंसनीय है और उसी ने उनको हिन्दी साहित्य में वह उच्च स्थान प्रदान किया है जिसके आधिकारी हिन्दी संसार के इनेगिने कवि-पुंगव ही हैं। मिश्र बंधुओं ने अपने ग्रंथ में देव