पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४०९

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विशेषता है। इसलिये मैं प्रत्येक के विषय में कुछ लिख देना चाहता हूं। मैं इस उद्देश्य से ऐसा करता हूं कि जिससे व्रजभाषा की परम्परा का यथार्थ और पूर्ण ज्ञान हो सके ॥

                       (१) 
मिखारीदासजी की गणना हिन्दी संसार के प्रतिष्ठित रीति ग्रन्थकारों

में है। उन्होंने भी काव्य के सब अङ्गों पर ग्रन्थ लिखे हैं और प्रत्येक विषयों का विवेचन पांडित्य के साथ किया है। कुछ नई उद्भावनायें भी की हैं। परन्तु ये सब बातें संस्कृत काब्य-प्रकाश आदि ग्रन्थों पर ही अवलम्बित हैं। हां, हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में उनकी चर्चा करने का श्रेय उन्हें अवश्य प्राप्त है। अब तक इनके नौ ग्रन्थों का पता लग चुका है जिनमें काव्य-निर्णय और श्रृंगार-निर्णय विशेष प्रसिद्ध हैं। ये श्री वास्तव कायस्थ थे और प्रतापगढ़ के सोमवंशी गजा पृथ्वीपतिसिंह के माई वाबू हिन्दूपतिसिंह के आश्रय में रहते थे, इनकी कृति में वह ओज और माधुय्य नहीं है जैसा देवजीको रचनाओं में है, परन्तु प्रांजलता उनसे इन में अधिक है। जैसा शब्द संगठन देवजी की कृति में है वह इनको प्राप्त नहीं, परन्तु इनकी माषा अवश्य परिमार्जित है। इनके ग्रन्थ की मुख्य भाषा व्रजभाषा है. और उस पर इनको पूर्ण अधिकार है । किन्तु प्रौढ़ता होने पर भी अनेक स्थानों पर इनकी रचना शिथिल है। ये कविता में विविध प्रकार की भाषा के शब्दों के ग्रहण के पक्षपाती थे । जैसा इनके दोहों से प्रकट है:-

       तुलसी गङ्ग दुवौ भये सुकविन के सरदार ।
       इनकी रचना में मिली भाषा विविध प्रकार ।
       व्रजभाषा भाषारुचिर कहै सुमति सब कोय ।
       मिलै संसकृतपारसिहं पै अति प्रगट जु होय।
यही कारण है कि इनकी रचना में ऐसे शब्द भी मिल जाते हैं जो

ब्रजभाषा के नहीं कहे जा सकते। ये अवध प्रान्त के रहनेवाले थे ।