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एक घरी न कहूं कल पैये कहाँ लगि प्रानन को कलपैये । आवै यही अब जी में विचार सखी चलि सौतिहुं के घर जैये । मान घटे ते कहा घटि है जुपै प्रान पियारे कौ देखन पैये । ४--दृग नासा न तौ तप जाल खगी न सुगन्ध सनेह के ख्याल खगी। सुति जीहा विरागै न रागै पगी मति रामै रँगी औ न कामै रँगी। तप में ब्रत नेम न पूरन प्रेम न भूति जगी न विभूति जगी । जग जन्म बृथा तिनको जिनके गरे सेली लगी न नवेली लगी । ५--कंज सकोच गड़े रहे कीच मैं मीनन बोरि दियो दह नीरन । दास कहै मृग हूं को उदास कै बास दियो है अरन्य गँभीरन । आपुस मैं उपमा उपमेय है नैन ये निंदित हैं कवि धीरन । खंजन हूं को उड़ाय दियो हलुके करि डान्यो अनङ्ग के तीरन ।
आप लोगों ने मतिराम के सोधे सादे शब्द-विन्यास देखे हैं । वे न तो अनुप्रास लाने की चेष्टा करते हैं और न अलङ्कार पर उनकी अधिक