पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(४०१)

 ५---जल भरे झुमैंमानों भूमैं परसत आय
          दसहूं दिसान घूमैं दामिनी लये लये।
     धूरि धार धूमरे से धूम से धुंधारे कारे
          धुरवान धारे धावैं छवि सों छये छये ।
     श्रीपति सुकबि कहै घोरि घोरि घहराहिं
          तकत अतन तन ताप तें तये तये ।
     लाल बिनु कैसे लाज चादर रहेगी आज
          कादर करत मोहिं बादर नये नये ।
 ६---हारि जात बारि जात मालती विदारि जात
          बारिजात पारिजात सोधन मैं करीसी ।
     माखन सी मैन सी मुरारी मखमल सम
          कोमल सरस तन फूलन की छरी सी।
     गहगही गरुई गुराई गोरी गोरेगात
          श्रीपति बिलौर सीसींईगुर सों भरीसी।
     विज्जुधिर धरी सी कनक-रेख करी सी
          प्रवाल छबि हरी मी लसत लाल लरीसी।
 ७---भौंरन की भीर लैके दच्छिन समीर धीर
          डोलत है मंद अब तुम धौं कितै रहे ।
     कहै कबि श्रीपति हो प्रवल वसंत
          मतिमंत मेरे कंत के सहायक जितै रहे।
     जागहि बिरह जुर जोर ते पवन है के
          पर धूम भूमि पै सम्हारत नितै रहे ।
     रति को बिलाप देखि करुना अगार कछु
          लोचन को मूंदि कै तिलोचन चितै रहे ।