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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४२७

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      अकल विकल है बिकाने हैं पथिक जन
          ऊर्ध मुख चातक अधोमुख मराल गन ।
      वेनी कवि कहत मही के महाभाग भये
          सुखद संजोगिन बियोगिन के ताप तन ।
      कंज पुंज गंजन कृषी दल के रंजन
          सो आये मान भंजन ए अंजन बरन घन ।
   २  करि की चुराई चाल सिंह को चुरायो लंक
          ससि को चुरायो मुख नामा चोरी कीर की ।   
      पिक को चुरायो बैन मृग को चुरायो नैन
          दसन अनार हाँसी बीजुरी गँभीर की ।
      कहै कबि बेनी बेनी व्याल की चुराय लीनी
          रती रती सोभा सब रति के सरीर की।
      अब तो कन्हैया जू को चित हूं चुराय लीनो
          छोरटी है गोरटी या चोरटी अहीर की।
  इस कवि का वाच्यार्थ किनना प्रांजल है और उसके कथन में 
कितना
प्रवाह है. इसके बतलाने की आवश्यकता नहीं. पद्य स्वयं इसको 
बतला रहे
हैं। ये उर्दू फ़ारसी अथवा अन्य भाषा के शब्दों का जिस प्रकार 
अपनी
ग्चना के ढंग में ढाल लेने हैं, वह भी प्रशंसनीय है। मेग विचार है  
कि
हिन्दी साहित्य के प्रधान कवियों में ये भी स्थान लाभ के अधिकारी 
हैं।
  प्रत्येक शतक में कोई न कोई लहृदय मुसलमान हिन्दी देवी को 
अर्चना
करते दृष्टिगत होता है । सेबद गुलाम नवा ( रमलोन ) विलग्रामी 
ऐसे
हो सहृदय कवि हैं । मेरा विचार है कि अबधो को ग्चना में जो 
गौरव
मलिक महम्मद जायसी को प्राप्त है व्रजभापा की सरस रचना के 
लिये
उसी गौरव के अधिकारी रसखान गुबारक और रसलीन हैं। ग्सलीन 
ने
'अंग दर्पण, और 'रस प्रबोध' नामक ग्रन्थों की रचना की है। ये 
अरबी